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जोसेफ डोक

 

75. ‘कथानायक’

1907 दिसम्बर के अंतिम दिनों में मैंने गाँधीजी को देखा । एशियाई लोगों के इस नेता से मिलने का मैंने निश्चय किया ।

रिसिक और एन्डरसन स्ट्रीट के कोने में उनका दफ्तर अन्य दफ्तरों जैसा ही था । एक छोटी, दुबली-पतली पर मूर्ती मेरे समक्ष आकर खडी़ हुई । उसकी चमडी़ का रंग श्याम था, आँखें भी काली थीं परन्तु चेहरे में खिली स्मित और सीधी निर्भीक दृष्टी सामनेवाले को देखते ही जीत लेनेवाली थी । उसकी उम्र लगभग अड़तीस वर्ष की रही होगी पर सिर में इधर-उधर चमकती रुपहली रेखाएँ उसके काम के भारी बोझ की चुगली कर रही थीं । वह निखालिस अंग्रेजी बोल रहा था और बर्ताव बताया था कि वह अत्यन्त संस्कारी है ।

मुझे आसन प्रदान कर उसने मुझसे मुलाकात का हेतु पूछा । मैं इस विषय में उससे कहने लगा तो वह बडे़ ध्यान से सुनता रहा । मेरा कहना समाप्त होने पर उसने एशियाई लोगों की स्थिति से संबंधित मुद्दे बहुत संक्षेप में, कम वाक्यों में पर अति स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर दिये । इतने स्पष्ट और सीधे रूप में कि सामने रखनेवाले वाक्य मैंने पहली बार ही सुने थे । उसने छोटी-से-छोटी बात का धैर्य से विश्लेषण किया और बडे़ धीरज तथा स्पष्टता से उसने अपनी बात मेरे गले उतारी ।

उसके अंदर स्थित शांत स्वस्थ व्यक्ति में हृदय की महानता और पारदर्शक प्रामाणिकता के मुझे दर्शन हुए, जिससे हिंद के इस नेता के प्रति मैं बहुत आकर्षित हुआ । जब हम बिछड़े तो हम दोनों के बीच मित्रता की गाँठ बंध चुकी थी ।