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जुगतराम दवे

 

73. ‘डिब्बा ही घर – डिब्बा ही आश्रम’

वडोदरा के गायकवाड अपने ध्वज पर अपनी मुद्रा ‘जीन घर-जीन तख्त’ अंकित करते थे । मराठा सरदारों को बडा़ अभिमान था कि उनके घोडे़ पर रातदिन जीन कसी ही रहती है ।

इसी प्रकार गाँधीजी का घर या आश्रम, जो कहिए रेलगाडी़ की तीसरी श्रेणी का डिब्बा बन गया था । अपना संदेश देश के एक कोने से दूसरे छोर तक फैलाने के लिए घूमते ही रहते और इस तरह उन्होंने इतनी बार चक्कर लगाया था कि यह कहना मुश्किल है कि उन्होंने रेलगाडी़ पर अधिक समय व्यतीत किया या आश्रम में । अतः रेलगाड़ी का डिब्बा ही उनका घर और वही उनका आश्रम, कहने में क्या गलती है ?

गाँधीजी रेल के डिब्बे को घर मानकर ही उसमें अपने समस्त काम-काज जारी रखते थे । डिब्बे में चरखा चलाते, सुबह-शाम प्रार्थना करते, पत्र व्यवहार चलाते, मुलाकात करते आदि सब डिब्बे में ।

गाँधीजी हमेशा तृतीय श्रेणी के डिब्बे में यात्रा करते । तीसरी श्रेणी के मुसाफिरों की तकलीफ का अनुभव करते हुए गाँधीजी को संतोष होता था । जब महात्मा के रूप में उन्हें देश में ख्याति नहीं मिली थी तब ऐसी कठिनाइयों का स्वाद चखने के अवसर उन्हें बहुत मिलते थे । बहुत बार उन्हें खड़े रहना पड़ता । कभी-कभी तो धक्का भी खाना पड़ता ।

उस काल में भी देश के नेता प्रजा से दूर-दूर रहते थे और कंगाल तथा मैलीकुचैली जनता से मिलने में शर्म महसूस करते थे । बडे़ ओहदेदारों की भाँति वे भी ऊँची श्रेणी में ही यात्रा करते थे ।

एक बार कलकत्ते में गाँधीजी गोखलेजी के घर ठहरे थे । विदाई के समय गोखलेजी उन्हें स्टेशन तक विदा देने के लिए निकले । गाँधीजी ने विनयपूर्वक उन्हें तकलीफ न उठाने को कहा । परन्तु गोखलेजी न माने । उन्होंने कहा, ‘यदि आप अन्य लोगों की भाँति ऊँची श्रेणी में यात्रा करनेवाले होते तो मैं न आता, पर आप तीसरी श्रेणी में बैठेंगे इसलिए मुझे विदाई देने आना ही चाहिए ।’         

तीसरी श्रेणी की कठिनाइयाँ भोगते हुए गाँधीजी को अपने देश की दीन-हीन प्रजा का पूरा परिचय जानने का अवसर मिला । प्रजी का स्वभाव, प्रजा की दुर्बलताएँ, प्रजा की आदतें उनकी रग-रग वे जान सके । प्रजा की नब्ज जितनी गाँधीजी ने परखी उतनी शायद ही कोई अन्य नेता परख सके होंगे । इसी कारण गाँधीजी पर प्रजा की गहरी श्रद्धा हो गई थी ।