| | |

जगदीश चावडा

 

71. ‘आफताब’(सूर्य)

परीक्षित भाई कभी खाली नहीं बैठते थे । त्यौहार हो या रविवार, उनके लिए सभी वार समान । हँसते-हँसते वे कहते, ‘त्यौहार या रविवार के दिन क्या हम खाते नहीं ? तो फिर काम क्यों बंद किया जाये ?’

सुबह पाँच बजे से रात के दस और कभी-कभी तो ग्यारह बजे तक काम में लगे रहते । गाँव के मैले-कुचैले मुलाकाती उनके आस-पास घिरे रहते । कार्यालय में हों या सोने के कमरे में, प्रवास में हों या गाडी़ में, मुलाकातियों की माला जारी रहती । ‘आओ, कैसे आये भाई !’ – कहकर वे सभी का स्वागत करते ।

आश्रम में रहने पर, हरिजन सेवक संघ के दफ्तर में सुबह सात से शाम के पाँच बजे तक सातों दिन बैठते थे । एक दिन बात से बात निकली और उन्होंने पूछा, ‘अपने यहाँ होली की छुट्टी होती है क्या ? छुट्टियों की सूची देखकर मैंने कहाः ‘होली और धुलेंडी, दो दिन की छुट्टी है ।’

‘क्या ? दो दिन की छुट्टी होती है ?’ आश्चर्य से उन्होंने पूछा । तत्पश्चात् कार्यालय के सभी कार्यकर्ताओं को सुनाई दे, इस प्रकार ऊँचे स्वर में एक प्रसंग कहने लगेः

‘बापू ने कभी कोई त्यौहार या रविवार का पालन नहीं किया । जब वे यरवडा जेल में थे तब अपनी हमेशा की आदत के अनुरूप जल्दी उठते, प्रार्थना करते, कातते, अध्ययन करते । उनका एक चौकीदार एडनवासी सोमाली था । वह न अंग्रेजी जानता, न हिंदी । अक्सर बापू के पास प्रार्थना के समय बैठता । बापू सूत कातते तो उन्हें देखता रहता ।’

‘उस दौरान बापू को बहुत सर्दी हो गई । फिर भी रोज के नियत कार्यक्रम के अनुसार बापू सुबह जल्दी उठकर अपने सारे काम करते । सोमाली ने यह देखा तो बापू के पास जाकर अपनी भाषा में कुछ कहने लगा । लेकिन बापू उसकी भाषा नहीं जानते थे । अंत में उसने संकेत से उन्हें आराम करने के लिए कहा  । बापू समझ गये और सिर पर तपते सूर्य की ओर संकेत करते हुए बोलेः ‘आफताब, आफताब ।’ चतुर सोमाली बापू की बात इशारे में समझ गया कि ‘जैसे सूरज आराम नहीं करता वैसे ही मनुष्य को भी काम करना चाहिए ।’ प्रसंग पूरा होते ही परीक्षितभाई हँसते हुए अपने काम में लग गये ।