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महेन्द्र मेघाणी

 

65. ‘बिखरी महफिल के पतंगे’

महावीर त्यागी की दो छोटी-छोटी पुस्तकों के गुजराती अनुवाद का पुनर्मुद्रण अभी ही प्रकाशित हुआ है । इन दोनों पुस्तकों के नाम हैः नगाड़खाने में तूती की आवाज (तीसरी आवृत्ति) और स्वराज की लडा़ई के वे दिन’ (चौथी आवृत्ति)। दोनों पुस्तकों का मूल हिन्दी में प्रकाशित हुआ था ।

दोनों ही पुस्तकों में लेखक के जीवन के संस्मरण हैं । एक में 132 पृष्ठ हैं और दूसरी में 152 पृष्ठ । इसमें से कम पृष्ठोंवाली ‘स्वराज की लडा़ई के वे दिन’ को मैंने पहले उठायी और उसके 14 प्रकरण को अंत से पढ़ना प्रारम्भ किया । पढ़ते-पढ़ते आँखें भीगती रहीं और मुँह पर हास्य भी बिखरता रहा ।

जो पाठक महावीर त्यागी के नाम से परिचित नहीं है, उनके लिए ‘स्वराज की लडाई के वे दिन’ पुस्तक के कुछ अंश यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ

‘किसी अलौकिक रागिनी के आरोहण के स्वरों पर मंत्रमुग्ध होकर नाचनेवाले हम मतवालों ने तीस वर्ष तक निरंतर इस महानृत्य के ताल के साथ अपने हृदय की धड़कन को बाँध लिया था । संसार की समस्त शक्तियों को दरकिनार कर हम इस संगीत में मस्त बन कर झूमते थे ।

परंतु अब पहले जैसी मस्ती नहीं है, वैसी तरंग और धुन नहीं । जिस तरह दीपशिखा बुझ जाने पर पतंगों की महफिल बिखर जाती है – बिल्कुल उसी प्रकार हमारी महफिल भी बहक गई । बापू के बिना कांग्रेस जैसे बिना राग का स्वर है । पिछले चालीस वर्षों में हमने क्या-क्या किया, यह भी पूरा याद नहीं है । जो कुछ किया मानो किसी नशे की मस्ती में किया था । उसमें मुश्किलें थीं पर हम हँसते – खेलते काम करते रहे ।

अब स्वराज के कारण हमारे अधिकांश कांग्रेसी बेघर और बेरोजगार हो गये हैं । जिस मालिक ने हमें पाला था, वह नहीं रहा । उसकी चुटकी बजते हमारे कान खडे़ हो जाते थे, उसकी सीटी बजे कि कूद जाते थे, दौड़ते थे । उसके चेहरे की स्मित देखकर लट्टू बन जाते थे । अब हमारे गले से पट्टा निकल गया है और अनाथ बनकर इधर-उधर पूँछ हिलाते फिरते हैं । अब न कोई चुटकी बजाता है, न कोई उत्साहित, व प्रेरित करता है ।

जब अंग्रेज थे, तब हमें प्रतिदिन कोई न कोई काम मिल जाता था । कुछ न हो तो प्रभातफेरी निकालते । जहाँ दस जन दिखे कि अखबार पढ़कर समाचार सुनाते । दूर से देखकर ही लोग हमारा स्वागत करते । पास आने पर पूछते, ‘कहिए, आजकल महात्मा गाँधी क्या कर रहे हैं ? आपको तो अच्छी तरह पहचानते हैं ।’ बहुत उत्साह से मैं उनकी बातें करता । गाँधीजी की बातें करते हुए मैं कभी थकता नहीं । परन्तु अब तो ये समस्त बातें स्वप्न-सी बन गई हैं । अंग्रेजों के जाने के बाद उनके बावर्ची आदि बेकार हो गये, वैसे ही कांग्रेस के कार्यकर्ता भी कार्यरहित हो गये हैं ।

याद कर-कर के, गिन-गिन कर हर-एक नेता का दरवाजा मैं खटखटा आया हूँ – कि कोई मदद करे तो मैं भी किसी काम में लग जाऊँ । लेकिन नेताओं के पास ओहदे, परमिट, लाइसेंस, वजीफा आदि बहुत हैं पर काम नहीं है ।