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गुणवंत शाह

 

64. ‘जटायु जीवंत हुआ’

‘रामायण’ में जटायु मेरा सबसे प्रिय पात्र है । मुझे राम से भी अधिक प्रिय पात्र लगता है जटायु । आज हम जिन समस्याओं से गुजर रहे हैं उनका हल केवल जटायु के पास है। तो सुनिए यह जटायु कौन है ?

जटायु के लिए मैंने (पारकी छठ्ठी नो जागतल) ‘दूसरों की तकलीफ को देख खुद परेशानी मोल लेनेवाला’ शब्द का प्रयोग किया है ।

सीता के अपहरण के समय जब जटायु अपना बलिदान देने तत्पर हुआ, तब गिद्ध समाज के व्यावहारिक लोगों ने उससे कहा होगा कि, ‘जटायु ! राम और रावण की तकरार में तू क्यों पड़ रहा है ? वे बडे़ और बलवान लोग हैं, इनमें तेरा पता भी न चलेगा । कहाँ रावण और कहाँ तू ? थोडा़ विचार तो कर !’

तब जटायु ने उन बुजुर्गों को जवाब दियाः

‘मेरे जीते जी रावण सीता का अपहरण नहीं कर सकता । मेरे जीते जी यह नहीं हो सकता ।’ और जटायु भिड़ गया ।

गाँधीजी के जाने के बाद समाज की जटायु वृत्ति खत्म हो गई है । इस समाज का अब एक ध्रुव – वाक्य है ‘कि इसमें हम क्या कर सकते हैं ?’

गाँधीजी चंपारन गये । चंपारन में यह कह सकते थे कि हम तो अब क्या कर सकते हैं ? बारडोली गये, तब भी कह सकते कि इसमें हम क्या कर सकते हैं ? किसान के महसूल का प्रश्न है इसमें हम बीच में कहाँ आयेंगे ? तो ‘हम इसमें क्या कर सकते हैं ?’ कहते-कहते ही गाँधीजी विदा हो गये होते ।

अंग्रजों के राज में ऐसा ही था कि बहुत-से लोग बोलते कि अंग्रेज सरकार के सामने हमारी क्या गति ! परन्तु इसी देश में मिट्टी से मर्द बनाये गाँधी ने । यह बिल्कुल निर्वीर्य समाज था जिसमें गाँधी ने इस प्रकार काम किया कि उसमें जटायु जीवंत हो गया ।