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रावजीभाई म. पटेल

 

62. ‘सबके बापू’

कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात थी । प्रार्थना के पश्चात् ‘रामायण’ का पाठ और बातचीत में लगभग साढे़ आठ बजे गये । कार्यक्रम समाप्त होते ही भाई देवदास पहले बाहर निकले । दरवाजे से बाहर निकलते ही एक बडा़ साँप फुफकारा । देवदास साँप को देख ने पाये पर उसकी फुफकार सुनी । वे तुरंत कमरे में लौटे और बताया कि ‘बाहर कुछ है, बत्ती लेकर चलो ना ! मगनलाल गाँधी और मैं लैम्प लेकर चले । बडे़ ध्यान से देखने पर, साँप की बडी़ रेखा-सी लगी । थोडी़ खोज करने पर मकान की एक ओर पानी की टंकी के पीछे एक बडा़ साँप बैठा दिखा । साँप पकड़ने के लिए हम रेशमी डोरी के फंदे वाली लाठी का उपयोग करते थे । वैसे दो फंदों को डालकर साँप को पकडा़, खींच कर निकाला । वह इतने जोर से झटके दे रहा था । कि हम दो जनों ने लाठी पकड़ रखी थी फिर भी हमें धक्का लग रहा था । इतने में बापू आ पहुँचे । साँप को देखा तो बोले, ‘यह तो बहुत बडा़ है। लेकिन तुम लोग डोरी कसो मत, वह हैरान हो जायेगा ।’ फिर कहा, ‘साँप को नीचे रखो ।’ हमने सोचा उसे जल्दी बाहर डाल आने का कहने के बदले बापू ने नीचे रखने को क्यों कहा ? हमने खूब संभालकर साँप को नीचे लंबाई में रखा ।

‘डोरी ढीली करो, उसकी गर्दन न कस द जाये ।’ हमने डोरी में ढील दे दी, इतनी कि साँप को निकलना हो तो निकल भी सके । तत्पश्चात् बापू ने क्या किया ? बापू ने उस आठ फीट लंबे साँप पर हाथ फेरना शुरू किया और बोले, ‘कितना सुंदर प्राणी है !’ बापू के हृदय में उस वक्त इसी जहरीले जानवर के प्रति कैसे भाव रहे होंगे ? मानो बालक के सिर पर उसके पिता प्रेमभरा हाथ फेरा कर उसे आश्वस्त कर रहे हों । बापू ने दो-तीन बार उसके शरीर पर हाथ फेरा । वह भयंकर उपद्रवी साँप जो दो-एक मिनट पहले तक अपनी झकझोर से हमें थका रहा था । अब अपने बापू के स्नेह-भरे मधुर स्पर्श पर लट्टू हो गया, डंक मारने का स्वभाव बिसर गया, सारा रोष उतर गया और प्रेम की मोहिनी के वश हो पूँछ हिलाता पडा़ रहा ।

कुछ क्षण यों ही बीते फिर बापू उठे और बोले, ‘जाओ, तुम दोनों इसे संभालकर उठाना और दूर छोड़ आना ।’ हमने साँप को उठाया कि वह फिर से उपद्रव करने लगा मानो उसे मधुर-पाश से छूटना अच्छा नहीं लग रहा था । हम उसे पास के सोते में धीरे से छोड़ आये । वह चला गया।