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रावजीभाई म. पटेल

 

61. ‘गीताजी का गूढा़र्थ’

मिर्जापूर के बँगले में कुछ दिन रुका तो बापू ने मुझसे पूछाः ‘रावजीभाई, अभी घर न जाना हो तो आश्रम में काम है । मकान बन रहे हैं । मगनलाल से संभल नहीं रहा है। आप दो-तीन महिने वहाँ रहें तो मगनलाल को राहत मिलेगी । उनकी भी माँग है ही । क्या आप वहाँ जायेंगे ?’

मैंने खुशी से स्वीकार किया और आश्रम में पहुँचा । उस समय राष्ट्रीय विद्यालय के शिक्षकों के निवास बन रहे थे । हृदयकुंज वाला मकान भी बनने वाला था । कुछ दिनों के बाद गाँधीजी भी बंगले में आये । उन्हें आश्रम के सिवाय अन्य किसी जगह रुचता भी नहीं । दिन के समय मैं मकान से संबंधित काम जैसे उनका माप तैयार करना, साधन, सामग्री का हिसाब रखाना आदि करता और रात में पहरेदारी करता । आश्रम के नजदीक ही छारा (आदिवासी) बस्ती थी । इस कारण हमें सदा भय लगा रहता था। आश्रम में बार-बार चोरियाँ होने लगीं तो पहरेदारी करने का निश्चय किया गया । प्रतिदिन रात्रि में बारह से तीन मैं और महादेवभाई बारी-बारी से पहरा देते थे ।

इस तरह काम चल रहा था । कि भरुच से एक भाई आये । वे साहित्य रसिक थे, कविता करते थे । वे आश्रम में रहना चाहते थे । बापू ने उनसे बात की और पूछा, ‘कहो, क्या काम करोगे ?’ उन्होंने कोई भी कार्य करने की इच्छा जताई । बापू ने मुझे बुलाकर कहा कि ‘मकान के कार्य में इस भाई को भी अपनी सहायता के लिए रखिए ।’ सज्जन मेरे साथ आये । मैंने उन्हें मकान बनाने के लिए जो ईंटें आती थीं उन्हें गिनकर रखने का काम दिया और उसका हिसाब रखने को कहा । दो-चार दिन उन्होंने काम किया । पर उनकी जरा भी दिलचस्पी इस काम में नहीं थी । उन्हें लगा कि, ‘मुझे ऐसा काम ? इसमें क्या फायदा ? यह तो अनपढ़ मजदूर का काम है । मैं पढा़-लिखा, पुस्तक लिखनेवाला, कविता कर सकनेवाला, पर यहाँ चार दिन से उसका विचार ही स्फुरित नहीं होता । अधिक दिन यहाँ रह जाऊँ तो मैं जड़ जैसा हो जाऊँगा ।’ अपने विचार उन्होंने मुझसे जाहिर किये तो मैंने कहा – “आपको अपने विचार बापू से सामने रखने चाहिए और उन्हीं से संतोष प्राप्त करना चाहिए ।” सज्जन बापू के पास अपनी बात कहते हुए बोले बोले कि, “मैं जब से यहाँ आया हूँ, ईंट-चूना में ही डूबा हुआ हूँ । इससे ऊपर ही नहीं आ रहा ।”

बापू ने सहज भाव से मुस्कराकर कहा, ‘यह तो बहुत अच्छा है, मुझे पसंद आया ।’

‘परन्तु बापू, पढ़ने या विचार करने के लिए जरा भी समय नहीं मिलता है ।’

उसकी जरूरत ही क्या है ? जब आवश्यकता होगी तब वह भी मिल जायेगा । अभी तो आप सौपें गये कार्य में मशगूल रहिए और वाचन का मोह छोड़िए । यहाँ तो मुख्यतः शारीरिक श्रम का काम रहेगा और आपको जो वाचन का मोह लगा है वह छूटे तो मैं समझूँगा कि इतना तो आपने सीखा ।’

सज्जन बात समझ न सके इसलिए अपनी भावना जताने के लिए बोले, ‘लेकिन मेरा यहाँ आने का हेतु यह था कि आपसे ‘गीताजी’ पढूँगा ‘गीताजी’ का गूढ़ार्थ समझूँगा । तत्पश्चात् ‘गीताजी’ पर लिखने की प्रेरणा प्राप्त करूँगा ।’

उनकी भावना सुन कर बापू हँस पडे़ और बोले, ‘आपकी भावना ‘गीताजी’ का गूढा़र्थ समझने की है, यह अच्छी बात है । और आप जो कार्य कर रहे हैं उसमें एकाग्र होने पर वह गूढा़र्थ भी आप समझ सकेंगे । ‘गीताजी’ का गूढा़र्थ तो निष्काम कर्मयोग है । फल की किसी प्रकार की तृष्णा रखे बिना हाथ में लिए कार्य में एकाग्र होकर कर्म करते रहना – यही ‘गीताजी’ का गूढा़र्थ है । आप उसी प्रकार वर्तन कर रहे हैं । आप जो कार्य कर रहे हैं उसमें आपको तृष्णा नहीं है, कोई स्वार्थ नहीं है । अपना कार्य आप एकाग्र होकर, योगस्थ होकर करते हैं अर्थात् आपने ‘गीताजी’ का पूर्ण अर्थ समझा है और उसी के अनुसार आचरण किया । इससे विशेष क्या समझना है ? यदि हमारी दिनचर्या के कार्यक्रम में ही ‘गीताजी’ का उपदेश आचरित होता हो, तो ‘गीताजी’ का वाचन करके, उस पर लिखे भाष्य पढ़कर, उस पर अपना अलग भाष्य रचने का मोह किसलिए रखें ?’

सज्जन तो यह प्रवचन सुनकर स्तब्ध रह गये । फिर थोडी़ देर में बोले, ‘मैं यहाँ आकर जैसे जड़ होता जा रहा हूँ । मैं पढ़ने के लिए, विचारने के लिए, आपके पास रहकर आपसे प्रेरणा प्राप्त करने यहाँ आया । पर मुझे लगता है कि महीनों यहाँ रह लूँ तो भी इस तरह से कुछ भी न पा सकूँगा ।’

बापूने उन्हें समझायाः ‘यहाँ काम ही ऐसा है । जो कार्य आप करें उससे ही चेतना प्राप्त करना आपको आना चाहिए । ‘गीताजी’ का गूढा़र्थ मैं भी इसी रीति से सीख पाया हूँ और दूसरों को भी इसी रीति से सिखाता हूँ ।’

करीब दस दिनों में सज्जन निराश होकर लौट गए ।