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मुकुलभाई कलार्थी

 

57. ‘आज्ञा-पालन’

अखिल भारतीय ग्रामोद्दोग संघ की स्थापना करके, उसे व्यवस्थित रूप प्रदान करने के लिए बापू मगनवाडी में रह रहे थे । उस समय वहाँ रहनेवालों को ही सारे काम मिल – बाँटकर करने होते थे ।

एक बार बापू और श्री कुमारप्पा के हिस्से में रसोई के बर्तन माँजने का काम आया । बापू और कुमारप्पा अपने काम में उत्साह से जुट गये ।

बा को जैसे ही इस बात की जानकारी मिली, वे तुरंत वहाँ पहुँच गईं और बापू को उलाहना देते हुए बोलीः ‘अरे, आप जैसे आदमी को इस काम के अलावा कोई अन्य काम-धंधा है या नहीं ? बहुत-से जरूरी काम हैं जो आपको करने हैं, वह कीजिए ना ! ऐसे काम करने के लिए तो बहुतेरे लोग हैं ।’

लेकिन बापू तो बा की यह मीठी झिड़की सुनकर हँसते-हँसते बर्तन माँजने में लगे थे । यह देख बा और चिढ़ गईं तथा उनके हाथों से बर्तन छीनकर माँजने लगीं ।

बापू के मिट्टी से भरे हाथों में नारियल के छिलके का टुकडा़ ही रह गया । बापू हँसते-हँसते कुमारप्पा से कहने लगेः ‘कुमारप्पा, आप वास्तव में सुखी आदमी हैं क्योंकि आप पर राज्य करने के लिए आपकी पत्नी नहीं है । लेकिन मुझे तो अपने घर की शांति बनाये रखने के लिए बा की आज्ञा का पालन करना ही पडे़गा। इसलिए आपके काम में साथी के रूप में मेरी जगह बा को छोड़ जाऊँ तो मुझे क्षमा कीजिएगा ।’

इतना कहकर अपने हाथ-पैर धोकर बापू अपने कमरे की ओर गये और बा कुमारप्पा के साथ बर्तन माँजने लगीं ।