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मुकुलभाई कलार्थी

 

53. ‘बापू-मोची’

एक दिन वल्लभभाई बापू से बोले, ‘पिछले वर्ष यहाँ एक अच्छा मोची था । अब अच्छे मोची नहीं रहे । दो-दो इंच चौडा़ पट्टा बना लाया, इसलिए मुझे जूते लौटाने पडे़ ।’

बापू ने कहाः ‘मैं चमडा़ मँगवाकर सी दूँ ? देखूँ तो भला, सीखी हुई कला मुझे अब तक याद है या नहीं ? मुझे जूते बनाना अच्छा आता था, यह तो आप जानते हैं ना ? मेरी कारीगरी का नमूना सोदपुर के खादी प्रतिष्ठान में है । यहाँ सोराबजी अडाजणिया आये थे और उन पर सत्यानंद बोस ने बहुत प्रेम बरसाया था । इसलिए उन्होंने मुझे लिखा था कि इस व्यक्ति को आपके हाथों बने जूते भेजें तो अच्छा रहे । मैंने उन्हें भेज भी दिया । परंतु यह तो बडा़ विन्रम बंगाली निकला । उसका कहना था कि यह जूते मेरे पैरों में नहीं, सिर पर रखने योग्य है । उसने एक दिन भी उसका उपयोग नहीं किया, अपने पास रखे रहा और बाद में खादी प्रतिष्ठान के संग्रहालय को प्रदान कर दिया ।’

उसी दिन आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के लिए ‘आत्मकथा’ की संक्षिप्त आवृत्ति में कुछ नये प्रकरण महादेवभाई ने पूरे किये थे, जिसे बापू जाँच चुके थे । इसकी याद आते ही बापू बोलेः ‘महादेव, इस संक्षेप में मेरे जूते बनाने का किस्सा कहीं पढ़ने में क्यों नहीं आया ? आना चाहिए । टालस्टाय फार्म में यह धंधा बहुत अच्छा चलता था । मैंने तो बच्चों के लिए कितने ही जूते तैयार किये । कलनबैक एक ट्रेपिस्ट मोनेस्ट्री से सीख कर आये थे और उन्होंने ही हमें सिखाया था ।’