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बलवंतसिंह

 

47. ‘चिड़ियाँ चुग गई खेत’

एक दिन बापू ने ऐसी योजना बनायी कि सबके जूठे बर्तन दो-तीन लोग मिलकर बारी-बारी से माँजें । इससे लोगों के अंदर प्रेमभाव बढे़गा, एक-दूसरे के बर्तन माँजने में जो घृणा होती है वह दूर होगी तथा सबका समय भी बचेगा । उनकी यह बात मुझे नहीं रुची । मैंने कहा कि सबके जूठे बर्तन एक साथ माँजने से अव्यवस्था होने का भय है । बापू ने कहा कि अव्यवस्था में व्यवस्था लाना ही हमारा काम है । चलो, पहली बारी मेरी और बा की । बस, बा को साथ लेकर बापू बर्तन माँजने के स्थान पर जाकर बैठ गये और सबसे कह दिया कि थाली यहीं रख दीजिए तथा हाथ धोकर चले जाइए । पहले तो लोग घबराये, परन्तु बापू का भाव देखकर सभी बर्तन रख कर चले गये । बापू और बा दोनों बर्तन माँजने में जुट गये । मैं रसोईघर का प्रबंधक था । मुझे वे कुछ कह न सकते थे इसलिए मैं भी उनकी सहायता में लगा ।

जब बा और बापू सबके जुठे बर्तन साफ कर रहे थे तब मेरे मन में आनन्द और शर्म का द्वन्द्वयुद्ध चल रहा था । साथ ही यह भाव भी पक्का होता जा रहा था कि यदि बापू और बा इस प्रकार के काम कर सकते हैं तो फिर हमारे मन में किसी भी काम के लिए छोट-बडे़ का भेद नहीं रहना चाहिए । बीच-बीच में बापू और बा का मनोरंजन भी चल रहा था। देखें कौन अधिक अच्छी तरह साफ करता है – यह होड़ भी चल रही थी । बापू बर्तन साफ करते हुए कहते हैं, “क्यों बलवन्तसिंह ! कैसे साफ हुए हैं ? आप हिम्मत क्यों हारते हैं ? आदमी निश्चय करे तो दुनिया में ऐसा कौन-सा काम है जो वह न कर सके ? आखिर हमारे घरों में क्या होता है ? स्त्रियाँ ही घर के सारे जूठे बर्तन साफ करती हैं । यह हमारा विशाल कुटुम्ब है और हमें स्त्री-पुरुष का भेद नष्ट करना है । इसलिए मैंने रसोईघर का प्रबंध किसी बहन को न देकर आपको दिया है । साबरमती में भी रसोई विनोबा के जिम्मे थी । मैं चाहता हूँ कि स्त्री-पुरुष के कार्यों के संबंध में जो भेद है वह अपने आश्रम में रहना ही नहीं चाहिए । विशेष रूप से रसोईघर तो पुरुषों को ही चलाना चाहिए । मैंने अपने जीवन में ऐसे अनेक प्रयोग किये हैं और इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि सामुदायिक रसोई चलाने से जैसी कुटुम्ब भावना बढ़ती है वैसी अन्य किसी प्रकार से नहीं । जो रसोई चलाता है उसका दायित्व भी बहुत अधिक होता है । समस्त वस्तुओं को व्यवस्थित और स्वच्छ रखना तथा प्रत्येक सदस्य को भगवान मानकर प्रेम से भोजन करवाना आध्यात्मिक प्रगति की महान साधना है । आप इसमें उत्तीर्ण होंगे तो मैं समझूँगा कि आप सेवा कर सकते हैं ।”

मेरे मन में एक ओर तो यह चल रहा था कि बापू बर्तन छोड़ कर यहाँ से शीघ्रताशीघ्र चले जायें तथा दूसरी ओर यह चल रहा था कि बापू जितना अधिक समय यहाँ रहें उतना अच्छा ! काश ! मैं चित्रकार होता तो उस दिन का एक चित्र बनाकर सबके आगे रखता

यह लिखते समय मेरे मन में जो भाव उमड़ रहे हैं उन्हें लिपिबद्ध करना मेरी क्षमता के बाहर है । कहाँ बापू और कहाँ हम ? उन्होंने कितने-कितने कष्ट सहकर हमें कैसे-कैसे सुंदर पाठ सिखाये हैं ? परन्तु हम सम्पूर्ण रीति से उनके पाठ पचा नहीं सके हैं। अब सोचते हैं कि बापू दो-चार वर्ष के लिए वापस आ जायें तो उनसे ढेरों पाठ सीखें । ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत ।’