घनश्यामदास बिरला
46. ‘बीमार की मृत्युशैया पर’ |
बहुत वर्ष पहले की बात है । दिल्ली का प्रसंग है । एक महिला मृत्युशैया पर थी । रोग से लड़ते-लड़ते बेचारी का शरीर बिल्कुल क्षीण हो गया था । केवल साँस बाकी थी । उसने जीवन की आशा छोड़ दी थी और अपनी अंतिम यात्रा के शेष दिन राम-राम करके बिता रही थी । फिर उसे लगाः ‘गाँधीजी के दर्शन हो सकेंगे क्या ? जाते-जाते अंत में उनके दर्शन कर लूँ ।’ गाँधीजी तो दिल्ली के नजदीक भी नहीं थे अर्थात् उनका दर्शन संभव न था । लेकिन मरते व्यक्ति की आशा पर पानी फेरना मुझे ठीक न लगा, इसलिए मैंने कहा, देखते हैं, संभव है ईश्वर आपकी इच्छा पूरी करे । दो दिनों के पश्चात् ही मुझे समाचार मिला की गाँधीजी कानपुर से दिल्ली होकर अहमदाबाद जा रहे हैं । उनकी गाडी़ सुबह चार बजे दिल्ली पहुँचती थी और अहमदाबाद की गाडी़ पाँच बजे छूटती थी । केवल एक घंटे का समय था। और वह बेचारी बीमार महिला दिल्ली से दस मील दूर थी । एक घंटे में रोगी से मिलकर वापस स्टेशन पहुँचना मुश्किल था । सर्दी का मौसम था । तेज हवाएँ चल रही थीं । सुबह के प्रहर में गाँधीजी को मोटर (उन दिनों खुली मोटर हुआ करती थी) में बीस मील की यात्रा करवाना भी भयानक था । गाँधीजी आ रहे हैं, इस बात का कोई अनुमान तक उस महिला को नहीं था । गाँधीजी गाडी़ से उतरे । मैंने दबी आवाज में कहा, ‘आप आज रुक नहीं सकते ?’ गाँधीजी ने कहा, ‘रुकना मुश्किल है।’ मैं हताश हो गया । रोगी को कितनी निराशा होगी, यह मैं जानता था । गाँधीजी ने पूछा, ‘रुकने के लिए क्यों कह रहें ?’ मैंने उन्हें कारण बताया तो गाँधीजी का जवाब था, ‘चलिए, अभी चलते हैं ।’ ‘परंतु आपको इस सर्दी में शर्राटा मारती हवा में, सुबह के इस प्रकार में मोटर में बैठा कर मैं कैसे ले जा सकता हूँ ?’ ‘इसकी फिक्र मत कीजिए । मुझे मोटर में बिठावाइए । वक्त गँवाने से क्या लाभ ? चलिए, चलिए ।’ गाँधीजी को मोटर में बैठाया । कड़कड़ाती ठंडी और ऊपर से तीक्ष्ण पवन निर्दयता से अपनी ताकत आजमा रहा था। सूर्योदय तो अभी हुआ नहीं था । ब्राह्म मुहूर्त की शांति चारों ओर फैली हुई थी । बीमार बहन बिस्तर पर पडी़-पडी़ ‘राम-राम’ जप रही थी । गाँधीजी उसकी खाट के नजदीक पहुँचे । मैंने कहा, ‘गाँधीजी आये हैं ।’ उसे विश्वास न हुआ । पर उन्हें देख वह घबराकर, चकित होकर उठने का प्रयत्न करने लगी । लेकिन उठने की शक्ति कहाँ थी ? उसकी आँखों से दो बूँद चुपचाप फिसल पडे़ । बीमार की आत्मा को कितना सुख मिला, यह उसकी आँखें कह रही थीं । गाँधीजी की गाडी़ तो छूट गई थी । इसलिए मोटर से ही अगले स्टेशन तक पहुँच कर, गाडी़ पकडी़ । |