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शाहनवाज खां

 

39. ‘जिंदगी भर गूँजते रहेंगे...’

हिंदुस्तान के बाहर जो जंगे-आजादी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में लडी़ गई, उसमें मैं भी एक मामूली-सा सिपाही था । हमने हथियारबंद होकर अंग्रेजी फौजों का मुकाबला मैदाने-जंग में किया था । हम लोग लडा़ई के मैदान में अपने मकसद में कामयाब न हुए ।

लाल किलें से रिहा होने के बाद मुझे करीबन डेढ़ बरस महात्मा गाँधीजी की खिदमत में रहकर काम करने का मौका मिला । मैंने उनको बहुत ही करीब से दिखा। मैंने देखा कि महात्माजी अपनी जिंदगी का हर कदम सत्य और अहिंसा के उसूल के अन्तर्गत उठाते थे । वे यह बात बडी़ ईमानदारी से मानते थे कि किसी नेक चीज को हालिस करने के लिए जो उपाय इस्तेमाल किये जाएँ, वह भी नेक और साफ होने चाहिए ।

अपने उसूल को कायम रखने के लिए वे दुनिया के बडे़-बडे़ खतरे का सामना करना एक मामूली-सा खेल समझते थे । जहाँ कहीं भी जुल्म और हिंसा होती थी, उसका मुकाबला करने के लिए वे बिल्कुल बेखौफ और निडर होकर उसमें कूद पड़ते थे । नोआखली में जहाँ अत्याचार हुए थे वहाँ महात्माजी नंगे पाँव गाँव-गाँव का दौरा कर रहे थे । जहाँ भी जाते थे, वहशीपन के नजारे दिखाई देते थे । जले हुए गाँव और सहमे हुए लोग, जिनका सब कुछ लुट चुका था, मिलते थे । उनके चेहरों से साफ जाहिर होता था कि उन लोगों को अपना भविष्य बिल्कुल अंधकारमय नजर आ रहा है ।

लेकिन ज्यों ही उनकी नजरें महात्माजी के चेहरे पर पड़ती थीं, उनमें एक तब्दीली आती थी और वही गमगीन तथा मुरझाये हुए चेहरे यकायक मुस्कुराहट से खिल जाते थे । वे बेअख्तियार यह कह उठते थे कि, अब बापू आ गए हैं, अब कुछ नहीं होगा । उनमें आत्मनिर्भरता का जज्बा जाग उठता था । यही हालत मैंने बिहार में देखी । मेरा ख्याल है कि अगर भारी से भारी फौजें उन लोगों की हिफाजत के लिए भेजी जातीं, तब भी वे अपने आप को इतना महफूज न मानते, जितना कि वे महात्माजी की मौजूदगी में महसूस करते थे ।

मैंने सोचा है कि आखिर वह कैसी ताकत थी इस वृद्धा इन्सान में, जो दूसरों का सहारा लेकर चलता था, जिसकी वजह से मजलूम और डरे हुए लोगों में यकायक बहादुरी का जब्जा पैदा हो जाता है । वह कौन-सी ताकत थी जिसके दम पर यह क्षीण-सा इन्सान जालिमों के लश्कर में अकेला कूद कर उनको शिकस्त दे देता था । यकीनन वह महात्माजी की सच और अहिंसा की ताकत थी जिसके सामने बुराई, जुल्म और हिंसा मुकाबले में खडे़ नहीं रह सकते थे । वे जहाँ भी जाते लोगों को बहादुरी का सबक देते थे – ऐसी बहादुरी, जो लोगों के दिलों से मौत का डर निकाल देती थी ।              मैंने लडा़ई के मैदान में सिपाहियों की बहादुरी के बहुत से कारनामे देखे हैं । लेकिन यह बहादुरी, जो महात्माजी लोगों को सिखाते थे, कुछ और ही तरह की बहादुरी थी – ठंडी किस्म की बहादुरी, और मैदाने-जंग की बहादुरी की अपेक्षा कडी़ किस्म की बहादुरी, - जिसमें वे लोगों को सिखाते थे कि जुल्म और हिंसा का मुकाबला करते हुए अपनी जान दे दो, लेकिन किसी, दूसरे की जान लेने की कोशिश न करो । यह सबसे ऊँची किस्म की बहादुरी है ।

जनवरी सन् 1948 का दिन मुझे अच्छी तरह याद है, जब उन्होंने दिल्ली में जुल्म और हिंसा को रोकने के लिए आखिरी बार मरणव्रत रखा था । व्रत की पहली शाम को मैं और दूसरे चंद साथी उनके पास पहुँचे । उस दिन बापू बहुत ही खुश नजर आ रहे थे । हँसकर कहने लगेः आज मैं बहुत खुश हूँ क्योंकि आज मैं जुल्म और हिंसा के खिलाफ लड़ रहा हूँ, खामोश नहीं बैठा हूँ ।

व्रत के चौथे दिन उनकी हालत ही ज्यादा बिगड़ गई । डाक्टर ने कहा कि अगर बारह घंटे के अंदर महात्माजी अपना व्रत नहीं छोडेंगे, तो उनकी जान सख्त खतरे में पड़ जायेगी । सब लोग घबरा गए और सबने यह कोशिश की कि महात्माजी व्रत छोड़ दें । उन्होंने महात्माजी को तरह-तरह की बातें कहीं ।

शाम को महात्माजी ने मुझे बुलाया और कहाः शाहनवाज, तुम नेताजी के सिपाही हो, और तुमने मेरे साथ एक बरस से ज्यादा काम किया है, तुम मुझे धोखा मत देना । तुम सच बताओ कि क्या दिल्ली में जुल्म और हिंसा खत्म हो गये हैं ?

मैंने जवाब दिया, ‘नहीं, अभी भी बारह खडे़ हुए लोग नारे लगा रहे हैं कि गाँधी को मरने दो ! जब मैंने यह बात कहीं, तो महात्माजी के चेहरे पर रौनक आ गई । कितने खूबसूरत थे वे अल्फाज जो उन्होंने उस वक्त कहे ! जिंदगीभर वही अलफाज मेरे कानों में गूँजते रहेंगे । उन्होंने कहा, “अगर गाँधी का उसूल मर जाये, तो समझो कि गाँधी जिन्दा ही मर गया है; परन्तु यदि गाँधी मर जाए और गाँधी का उसूल (सिद्धान्त) जिंदा है, तो समझो कि गाँधी हमेशा के लिए जिंदा है ।”