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काका कालेलकर

 

34. ‘लँगडा़ते दत्तोबा’

यरवडा में मैंने प्रवेश किया और देखा कि बापू की सेवा के लिए सामान्य कैदियों में से दत्तोबा नामक एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण को रसोइए के रूप में रखा गया है । बेचारे के हाथ-पैर में संधिवात था। लँगडा़ते हुए चलता । बोलता कम, पर बताया हुआ काम बराबर करता । बापू के लिए नहाने का पानी गरम करना, उनके कपडे़ धो देना, दूध गरम करना आदि ऐसे ही काम उसे सौंपे गये थे ।

उसे लँगडा़ते देख बापू ने मेरी माफर्त उसकी समस्त स्थिति जान ली । दूसरे ही दिन सुबह उन्होंने सुपरिन्टेन्डेन्ट मेजर मार्टिन से बात की, पूछाः ‘मैं इस पर नैसिर्गक उपचार आजमाना चाहता हूँ, यदि आपकी आज्ञा हो तो ?’ जेल के डाक्टर ने छह माह तक उन्हें दवा दी थी, पर उससे कोई फायदा नहीं हुआ । मेजर मार्टिन ने उत्तर दियाः ‘हमें कोई आपत्ति  नहीं है । आप अपना इलाज आजमा लीजिए ।’ बापू ने कहा, ‘कुछ दिन इसे उपवास करवाऊँगा। फिर इसे अमुक खुराक ही दूँगा । मेरी खुराक में से ही आवश्यक वस्तु इसे दूँगा ।’ उसके जीवन में इतनी दिलचस्पी लेनेवाला कोई दत्तोबा को कभी नहीं मिला था । वह प्रसन्न हुआ, उससे भी ज्यादा चकित हुआ । बापू रोज उसे बुलाते, तबियत के बारे में जानकारी लेते, खुराक में आवश्यक बदलाव करते । कुछ ही दिनों में उसकी तबियत में सुधार नजर आने लगा । आखिर में, बडे़ कष्ट लँगड़ाते हुए चलने वाला व्यक्ति, बिल्कुल स्वस्थ होकर दौड़ने लगा । फिर तो वह विशेष निष्ठा से बापू की सेवा करने लगा – भला इसमें आश्चर्य भी क्या ?

दत्तोबा का प्रकरण पूर्ण करने के लिए बाद की कुछ घटनाएँ भी यहाँ वर्णित कर देता हूँ । मैं छूटा, बापू छूटे, फिर द्त्तोबा भी अपनी सजा पूरी करके छूटा ।

बहुत दिनों बाद, जब बापू मुंबई में मणिभवन में थे और मैं मिलने गया था, तब एक दिन अचानक दत्तोबा बापू से मिलने आ पहुँचा । मैं उसे बापू के पास ले गया । बापू ने प्रेम से पूछा, ‘अभी क्या करते हो ?’ उसने कहा, ‘कोर्ट की तरफ एक छोटी-सी चाय-काफी की दुकान खोली है ।’

बापू काम में बहुत व्यस्त थे इसलिए उससे बोले, ‘कल मिलने आना, जरूर आना । आज समय नहीं है ।’

‘हाँ’ कहकर वह गया, पर आया ही नहीं । बापू को बहुत अफसोस हुआ, कहने लगे, ‘उसकी दुकान के लिए मैं थोडे़ पैसे देना चाहता था। गरीब आदमी मजदूरी करके पेट भरता है । दो-दो बार कैसे आ सकता है ? मुझे उसी समय पैसे देना चाहिए था ।

मैंने बहुत विचार किया, प्रयत्न किया । परन्तु मुंबई जैसे विशाल मानवसागर में दत्तोबा को ढूँढ़ निकालना क्या आसान था ?