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काका कालेलकर

 

26. ‘माँ-जैसी वात्सल्य’

बापू विलायत से (दक्षिण अफ्रिका से विलायत होकर) भारत आए तब मैं शांतिनिकेतन में था। बापू के फिनिक्स आश्रम से आयी मंडली भी वहाँ अतिथि के रूप में रही थी । समाचार-पत्र पढ़ते रहने के कारण दक्षिण अफ्रिका के अपने लोगों का ताजा इतिहास मैं जानता था । गाँधीजी के फिनिक्स आश्रम के बारे में भी सुना था । संभव है कि आश्रमवासियों ने भी मेरा नाम सुना हो । मैं इस फिनिक्स मंडली में लगभग मिल गया था । सुबह-शाम की प्रार्थना उनके साथ ही करने लगा और शाम को भोजन भी उनके साथ लेने लगा । आश्रमवासी प्रतिदिन सुबह उठकर एक घंटा मजदूरी करते। शांतिनिकेतनवालों ने उन्हें एक काम सौंप दिया था । पास में एक छोटा तालाब था और उसके नजदीक एक छोटा टीला था । टीले को खोदकर उस तालाब को भरने का यह काम था । हम दस-बीस लोग पूरे उत्साह से रोज यह काम करने जाते थे ।

बापू शांतिनिकेतन आए उस रात हम देर तक उनसे बातें करते रहे । सुबह उठकर प्रार्थना करने के पश्चात् मजदूरी के लिए गए। वहाँ से लौटकर देखा कि हमारे लिए फल आदि व्यवस्थित टुकडे़ करके अलग-अलग थालियों में परोस कर रखे हुए हैं । हम सब तो कम पर गये थे, तब माँ की भाँति इतनी मेहनत किसने की होगी ? मैंने बापू से पूछाः ‘यह सब किसने किया ?’ वे बोले, ‘क्यो ? मैंने किया ।’ मैंने संकोचपूर्वक कहाः ‘आपने यह क्या किया ? आप यह सब तैयार करके रखें और हम लोग बैठ कर खाएँ, यह मुझे ठीक नहीं लगता ।’ उन्होंने कहा, ‘क्यो, इसमें क्या आपत्ति है ?’ मैंने कहा, ‘आप जैसों की सेवा लेने जितनी योग्यता तो होनी चाहिए ना ।’

इसका बापू ने जो जवाब दिया उसके लिए मैं तैयार नहीं था । (उस समय मैं बापू से अंग्रेजी में ही बात करता था) मैंने कहा था ‘वी मस्ट डिजर्वइट’ (हममें इतनी योग्यता होनी चाहिए’) । यह सुनते ही अत्यन्त स्वाभाविकता से उन्होंने कहा, ‘व्हिच इस ए फैक्ट’ (तुम्हारी बात सही है) । मैं उनकी ओर देखता ही रह गया । वे हँसते-हँसते बोलेः “तुम लोग वहाँ काम पर गये थे और नाश्ता करके फिर काम पर जाओगे । मुझे फुरसत थी, इसलिए मैंने तुम लोगों का समय बचाया । एक घंटा काम करने के पश्चात् ऐसा नाश्ता पाने की योग्यता तो आपने प्राप्त कर ली है ना ?’