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काका कालेलकर

 

22. ‘अस्पृश्यता की शर्त पर तो...’

1921 की बात है । अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हुई । विद्यापीठ की प्रबंध-समिति (सेनेट) की बैठक में मि. एन्ड्रूज भी शामिल हुए । उन्होंने प्रश्न उठाया, ‘विद्यापीठ में हरिजनों को भी प्रवेश मिलेगा ना ?’ मैंने तुरंत उत्तर दिया कि हाँ, हरिजनों को अवश्य प्रवेश मिलेगा । परंतु हमारी प्रबंध-समिति में कुछ ऐसे लोग भी थे जो इस मामले में अपनी अलग राय रखाते थे, जिन्हें यह बात मंजूर नहीं थी । वे अपनी-अपनी परेशानियाँ जाहिर करने लगे। उस दिन यह प्रश्न अनिर्णित रह गया । अंत में बापू से पूछा गया तो उनका उत्तर मेरे जवाब के समर्थन में था ।

समस्त गुजरात में इस बात की चर्चा छिड़ गई । मुंबई के कुछ धनिक वैष्णवों ने बापू के पास आकर कहा ‘राष्ट्रीय शिक्षा का कार्य धर्म का कार्य है। इस कार्य के लिए आप जितना कहें उतना धन हम प्रदान करेंगे । परंतु हरिजनों के सवाल को आप छोड़ दीजिए। यह बात हमारे गले नहीं उतरती ।’

वे लोग पाँच-सात साख रुपये प्रदान करने की मंशा लेकर आये थे । बापू ने उनसे कहा, ‘विद्यापीठ के फंड की बात तो दूर है, अस्पृश्यता बनाये रखने की शर्त पर मुझे कल कोई हिन्दुस्तान का स्वराज्य दे तो मैं वह भी न लूँ ।’