| | |

काका कालेलकर

 

20. ‘गीता कंठस्थ की’

सम्पूर्ण ‘भगवदगीता’ कंठस्थ करने का चाव बापू के मन में दक्षिण अफ्रिका से ही था । वहाँ सुबह दातुन करते समय दीवार पर ‘गीता’ के दो-तीन श्लोक लिख रखते थे और याद करते थे ।

यरवडा में अच्छी सुविधा और फुरसत देखकर बापू ने शुद्ध उच्चारण के साथ ‘गीता’ के श्लोक कंठस्थ करने का निश्चय किया । फिर मुझसे बोले, ‘काका ! ‘गीता’ के श्लोकों का उच्चारण मुझे सुधारना है । आश्रम के बालकों को पढा़ते हुए मैंने तुम्हें देखा है । तुम्हारे उच्चारण पर मैं मुग्ध हूँ । जहाँ मेरा उच्चारण गलत हो वहाँ मुझे टोकना। मैं बार-बार बोलकर सुधार लूँगा । मैं ‘बड़ा’ हूँ, ‘महात्मा’ हूँ । मुझे भला मेरी गलती कैसे बतायी जाये, - यह सब सोचकर यदि मेरे उच्चारण में कमी रहने दोगे तो यह पाप तुम पर होगा । मुझे विद्यार्थी समझो और एक भी भूल रहने तक सुधारते जाओ ।’

हमारी गाडी़ ठीक चलने लगी । जहाँ कोई खामी बताऊँ, वहीं पुस्तक में पेंसिल से महीन निशान लगाते और उस हिस्से को बार-बार सुनते । एक ही पंक्ति या शब्द को अनेक बार बोलने में मुझे कभी ऊब नहीं होती । क्योंकि मैं जानता हूँ कि बार-बार सुनाकर कान भर देना ही शुद्ध उच्चारण सिखाने का प्राकृतिक नियम है । बालक इसी प्रकार से उच्चारण और उनके साथ लहजा भी सीखते हैं ।