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उमाशंकर जोशी

 

17. ‘पहले मेरा सिर फोडो़ !’

नागपुर में महासभा का अधिवेशन चल रहा था । गाँधीजी अपनी झोंपडी़ में वल्लभभाई आदि के साथ बातें कर रहे थे । झोंपडी़ के बाहर एक मारवाडी़ पति-पत्नी दर्शन करने हेतु अंदर आना चाहते थे । स्वयंसेवकों से उनकी झकझक हो रही थी । वल्लभभाई ने उन्हें अंदर आने देने के लिए कहा ।

तभी एक दूसरा स्वयंसेवक दौड़ता हुआ आया और बंगाल-छावनी में उपद्रव होने का समाचार लाया । गाँधीजी तेजी से उठकर खडे़ हो गये । ताजी हजामत की हुई थी । सूर्य की किरणों से उनका माथा चमक रहा था । नजदीक पडी़ हुई एक चादर कंधे पर डाल कर वे चल पडे़ । बडी़ मुश्किल से महात्माजी के दर्शन की आस पूरी कर पानेवाली महिला उन्हें जाते देख बोली, ‘आप रुकिए, मुझे बात करनी है । ‘इतना कह उसने महात्माजी के चादर का किनारा पकड़ लिया । महात्माजी तो जाने की जल्दी में थे, चादर वहीं छोड़ आगे बढ़ गये । वल्लभभाई मजाक में बोल उठेः ‘ऐसे प्रसंग में तो वे अपनी धोती भी फेंक कर दौड़ते हैं ।’

कड़कडा़ती सर्दी में गाँधीजी बंगाल-छावनी में पहुँच गये । वहाँ तो अदभुत दृश्य था । गाँधीजी के असहयोग के प्रस्ताव का विरोध करने दासबाबू कलकत्ता से लगभग 250 प्रतिनिधियों को अपने खर्च पर लाये थे । श्री बनर्जी गाँधीजी के प्रस्ताव के पक्ष में थे । दोनों के कार्यकर्ताओं के बीच झड़प हुई थी ।

गाँधीजी उस टोली में जाकर एक स्टूल पर खडे़ हो गये । बंगालियों के अतिरिक्त अन्य सभी को पहले वहाँ से चले जाने के लिए कहा । फिर बंगालियों से बोलेः ‘तकरार का मूल मैं हूँ । सिर फोड़ना है तो पहले मेरा फोडो़ ।’

कुछ देर में सभी शांत हो गये । दासबाबू के साथ उन्होंने वही बात की । परिणाम यह हुआ कि दासबाबू, जो उनके विरुद्ध थे, के द्वारा ही प्रस्ताव प्रस्तुत करवाया ।