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मिली ग्रेहाम पोलाक

 

11. ‘स्त्री का स्थान’

एक अन्य प्रसंग में स्त्रीयों की स्थिति से संबंधित चर्चा चल रही थी, उसमें गाँधीजी ने कहा कि पश्चिम में स्त्री को स्थान मिला है उसकी अपेक्षा ऊँचा स्थान पूर्व में उसे दिया गया है ।

मैंने कहाः ‘यह बात मेरे गले नहीं उतरती । पूर्व ने ही इसे पुरुषों का ताबेदार बनाया है । वहाँ तो स्त्री के अपने व्यक्तिगत जीवन जैसा कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता ।’

गाँधीजी बोले, ‘आप भूल रही हैं । पूर्व ने स्त्री को पूज्य माना है ।’

मैं बोली, ‘परन्तु पूर्व में मुझे यह पूजी जाती नहीं दिखती । मैं तो इन्हें किसी न किसी पुरुष की भोगवृत्ति को संतुष्ट करने में लगी देखती हूँ ।’

गाँधीजी ने कहा, ‘जीवन के महत्त्वपूर्ण विषयों में वह पुरुषों के समान और उससे बढी़ – चढी़ भी है। छोटी-छोटी बातों में कदाचित् वह पुरुष की सेवा करती होगी ।’

मैंने पूछाः ‘परन्तु पुरुष कुर्सी पर बैठकर खाये और स्त्री पीछे खडी़ रहे, ऐसा रिवाज हो तो, क्या कहा जा सकता है भला कि पुरुष स्त्री को अपने समान मानता है ?’

गाँधीजी ने सहज स्मित के साथ कहाः ‘यह सच है कि पुरुष उस आदर्श तक नहीं पहुँचे हैं । परन्तु लगभग सभी पुरुषों के मन में इसका भान भी रहता ही है ।’