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लल्लुभाई म. पटेल

 

9. ‘गरीबी से काँप रहा हूँ’

दिल्ली में कडा़के की सर्दी के दिन थे । गाँधीजी उस समय बिरला-भवन में रहते थे । सुबह की प्रार्थना के लिए वे जल्दी उठते और हाथ जम जाये ऐसे ठंडे पानी से अपना मुँह धोते थे । इस दृश्य को देखने वाले के मन में तुरंत यह ख्याल आता कि बापू गर्म पानी लें तो कितना अच्छा ! हिंदुस्तान की गरीबी से निरन्तर द्रवित उनका अंतर कहता कि पानी गर्म करने का बोझ मैं अपने इस गरीब देश पर क्यों लादूँ ?

ऐसी ही सर्दी में, एक दिन सुबह की प्रार्थना के बाद वे काम में जुट गये । डाक से आयी चिटि्ठयों के खाली लिफाफों का ढेर उन्होंने कमरे में देखा। हाथ में कैंची लेकर लिफाफे काटने लगे । एक ओर का कोरा कागज, एक पर एक रखकर वे लिखने के लिए पैड बना रहे थे। इस गरीब देश में कागज यों बेकार चला जाये – यह उन्हें सहन नहीं हो रहा था । लेकिन लिफाफे को काटते हुए उनके हाथ काँप रहे थे । इतनी ठंडी में गाँधीजी यह काम बंद कर दें तो अच्छा – यह सोचकर एक ने उनसे कहा, ‘बापू ! आप सर्दी से काँप रहे हैं ।’

गाँधीजीः ‘नहीं ! सर्दी से नहीं काँप रहा हूँ । कुदरती सर्दी तो शरीर के लिए लाभप्रद है। मैं तो हिंद की मूक जनता की गरीबी और निराधारता के विचार से काँप रहा हूँ । इस गरीबी का अंत कब आयेगा ?’

लिफाफे काटने का अपना कार्य उन्होंने जारी रखा ।