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लल्लुभाई म. पटेल
 

5. ‘दो शब्द काट दिये’

कलकत्ता में हिंदू-मुस्लिम दंगा चल रहा था । एक उपद्रवा टोली ने तो गाँधीजी के निवास पर हमला करके दरवाजे-खिड़कियों के काँच फोड़ डाले और फर्निचर को भी नुकसान पहुँचाया । गाँधीजी पर भी ईंट फेंकी गई परन्तु सदभाग्य से उन्हें कोई चोट नहीं आयी ।

इन घटनाओं से वे गहरे मंथन में डूब गये । असहाय बनकर देखते रहना तो उनका स्वभाव ही नहीं था । अंत में उपवास करने का निर्णय उन्होंने जाहिर किया ।

उन्होंने लोगों से कहा कि अपनी समझ और सुध-बुध भूले कलकत्ता को ठिकाने पर लाने के लिए मैं उपवास कर रहा हूँ । मेरा धर्म तो घर-घर घूमकर उन्हें अपने मतभेद भूल कर, एक होकर शांतिपूर्वक रहने के लिए समझाना है परन्तु इस उम्र में मैं यह नहीं कर पाऊँगा, इसलिए मैनें उपवास का आश्रय लिया है ।

उपवास के दौरान पानी, सोडा और नीबू का रस लेने का निर्णय उन्होंने अपने निवेदन में व्यक्त किया था । राजाजी उस समय बंगाल के गर्वनर थे । उन्हें लगा कि गाँधीजी ने नीबू का रस लेना स्वीकार किया है तो अब भी गाँधीजी को उपवास न करने के लिए समझाने का अवकाश है ।

राजाजी गाँधीजी के पास पहुँचे और अपनी दलीलें प्रस्तुत करने लगे । लेकिन गाँधीजी को उपवास के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं सूझ रहा था । अंधकार में से प्रकाश  ढूँढ़ने का यही मार्ग उन्हें उचित लगता था ।

दलीलें करते हुए, अंत में राजाजी का धीरज खूटने लगा । वे बोल उठेः ‘उपवास ही करना हो तो यह नीबू का रस किसलिए ?’

तुरंत गाँधीजी ने निर्मल बाबू की ओर देखा तथा कहा, मेरा निवेदन आपने पढा़ तब यह क्यों नहीं देखा ? राजाजी मुझे वर्षों से जानते हैं इसलिए उन्होंने झट मेरी कमजोरी पकड़ ली, वे बिल्कुल सही कह रहे हैं । क्योंकी मुझमें कहीं गहरी यह आशा थी कि मैं उपवास से पार उतर जाऊँगा, इसलिए मैनें नीबू का उल्लेख किया था। परन्तु राजाजी ने मेरी दुर्बलता पकड़ ली है ।’

इतना कह कर पास पडी़ पेन्सिल उठाकर ‘नीबू का रस’ शब्द निवेदन से काट दिया ।