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विनोबा भावे
 

4. ‘मलयगिरि का गौरव-गान’

वटवृक्ष की छाया में छोटे पौधों की वृद्धि कुंठित हो जाती है, क्योंकि उस छोटे पौधे को मिलनेवाला पोषण वटवृक्ष ही ग्रहण कर लेता है । इस उदाहरण के द्वारा कहा जाता है कि बडे़ लोगों के आश्रय में छोटे लोग पनप नहीं सकते ।

परन्तु बडे़ लोग और महापुरुष में अंतर होता है । महापुरुष महात्त्वाकांक्षी हों पर स्वार्थी नहीं होते, वे महान ही होते हैं । वे दूसरों का पोषण खानेवाले नहीं बल्कि दूसरों को पोषण प्रदान करनेवाले होते हैं । उन्हें वात्सला गाय की उपमा दी जा सकती है । गाय अपना दूध पिलाकर बछडे़ को पालती-पोसती है, तभी बछडा़ प्रतिदिन बढ़ता जाता है। महापुरुषों की यही आकांक्षा होती है कि उनके द्वारा सभी की उन्नति हो । दूसरों को ऊपर के लिए वे स्वयं नीचे झुकते हैं ।

बापू के जीवन में हमने गो-वत्स-न्याय का उदाहरण देखा है । उनका आश्रय लेनेवाले सभी छोटे थे तो बडे़ बन गये, बुरे थे तो अच्छे बन गये, कठोर थे तो कोमल बन गये । बापू के साथ अपने संबंध की गाथा यदि कोई लिखेने बैठेगा तो इसी अनुभव को व्यक्त करेगा । कवि भी इन शब्दों में गवाही देते हैं कि, “जिसके आश्रय में रहनेवाले वृक्ष वैसे के वैसे रहते हैं, वह सुवर्णगिरि या रजतगिरि क्यों न हो, उसका गौरव हम नहीं गाते । हम तो गौरव-गान करते हैं, उस मलय-गिरि का जिसके आश्रय में सामान्य वृक्ष भी चंदन बन जाता है ।”