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विनोबा भावे
 

2. ‘जिस गाँधी को मैंने जाना’

गाँधीजी को समग्र देश बापू कहता रहा, पर मुझे लगता है कि वे पिता से अधिक माता थे । जब हम उनका स्मरण करते हैं तब उनके अनेक गुणों की अपेक्षा उनका वात्सल्य ही अधिक याद आता है । प्राचीन परम्परा के फलरूप और नूतन परम्परा के बीजरूप एक वत्सल माता के समान महापुरुष के दर्शन हमने बापू में किए है ।

‘गीता’ के कर्मयोग का प्रत्यक्ष आचरण मैंने बापू में देखा । स्थितप्रज्ञ के लक्षण जिस पर लागू पड़ते हों – ऐसा शरीरधारा ढूँढ़ने पर भी मुश्किल से मिलता है, परन्तु इन लक्षणों के बहुत नजदीक पहुँचे हुए महापुरुष को मैंने अपनी आँखों से देखा है । मैं मानता हूँ कि मेरा जीवन धन्य बन गया क्योंकि उनके आश्रय में रहने का अवसर मुझे मिला । उनकी शरण में जानेवाले प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा ही अनुभव होता था कि वह स्वयं बुरा था, अच्छा बन गया, छोटा था, बडा़ बन गया । उन्होंने हजारों का महत्त्व बढा़या ।

गाँधीजी के कुछ विचार कई लोगों को पसंद नहीं आते थे । तब कोई तो उनसे कहते भी थे कि अब आप हिमालय पर चले जायें तो अच्छा ! यह सुनकर बापू हँसते हुए कहते कि यदि आप लोग हिमालय पर जायेंगे तो मैं भी आपके पीछे-पीछे आऊँगा, और यदि यहीं रहेंगे तो आपका यह सेवक भी यहीं रहेगा । जहाँ स्वामी वहाँ सेवक । वे तो यह भी करते कि मेरी तपस्या का हिमालय तो वहाँ है जहाँ अबतक दरिद्रता है, जहाँ से शोषण हटाना है, दुख निवारण करना है।

एक नैतिक आवाज उठे और सारा देश उसका अनुसरण करे, ऐसी कोई संस्था या ऐसा व्यक्ति आज देश में दिखाई नहीं देता । विभिन्न पक्षों के नेता जनता के समक्ष जाकर एक-दूसरे की बोतों को खण्डन करते हैं । इससे जनता में किसी प्रकार की कार्यशीलता उत्पन्न नहीं होती । जनता असमंजस की स्थिति में है और समझ नहीं पा रही कि कहाँ जायें, क्या करें ? देश में निष्क्रियता, शून्यता और खालीपन भर गया है ।