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गांधीजी ने अलग मुस्लिम राज्य के विचार का समर्थन किया यानी वे पाकिस्तान का निर्माण होने के लिए जिम्मेदार हैं।

 लिखित इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि बडी चालाकी से इसमें तथ्यों के साथ छेडखानी की गई है। उन दिनों चल रही उग्र एवं पतनशील तथा अव्यवस्थित राजनीति के कारण गांधी बहुत सक्रिय हो गए थे। देश के विभाजन के प्रस्ताव और उसके विरुद्ध हुई हिंसके प्रतिक्रिया ने तनाव पैदा कर दी थी जिसके कारण मानवीय इतिहास में दर्दनाक पृथकतावादी हत्याएँ हुइऔ। कट्टर मुसलमानों की नजर में गांधी हिंदू थे जिन्होंने धार्मिक/सांप्रदायिक आधार पर पाकिस्तान के निर्माण का विरोध किया था। कट्टर हिंदुओं की नजर में वे हिंदुओं पर हुए अत्याचार का बदला लेने में बाधक थे। गोडसे इसी अतिवादी सोच की उपज था।

गांधी की हत्या दशकों से योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा मनःस्थिति में परिवर्तने का परिणाम थी। कट्टरपंथी हिंदुओं के फलने-फुलने में गांधी बाधक थे और समय के साथ यह भावना पागलपन में बदल गई। वर्ष 1934 से लेकर लगातार 14 वर्ष़ों में गांधी पर छह बार प्राणघातक हमले हुए। गोडसे द्वारा 30 जनवरी 1948 को किया गया हमला सफल रहा। अन्य पाँच हमलों का समय है जुलाई 1934, जुलाई एवं सितंबर 1944, सितंबर 1946 और 20 जनवरी 1948। गोडसे पूर्ववर्ती दो हमलों में शामिल था। वर्ष 1934, 1944 एवं 1946 के असफल हमले जब हुए तब पाकिस्तान का निर्माण और उसे 55 करोड रुपये दिये जाने का प्रस्ताव अस्तित्व में नहीं थे। इसकी साजिश बहुत पहले ही रची गई थी। `मी नाथूराम गोडसे बोलतोयञ इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि गांधी की हत्या का प्रश्न हमारे राष्ट्रीय जीवन से लुप्त नहीं हुआ है।

एक सभ्य समाज में मतभेदों का निराकरण खुले एवं स्पष्ट विचार-विमर्श के लोकतांत्रिक तरीकों से जनमत जागृति द्वारा किया जाता है। गांधी हमेशा इसके पक्षधर थे। गांधी ने बातचीत के लिए गोडसे को बुलाया था, पर इस अवसर का लाभ उठाने के लिए वह आगे नहीं आया। यह स्पष्ट करता है कि गोडसे का, मतभेदों को लोकतांत्रिक तरीके से निराकरण करने में, विश्वास का अभाव था (यानी विश्वास नहीं था)। ऐसे संकुचित मानसिकता के लोग अपने विरोधी को खत्म कर डालते हैं।

हिंदू मानसिकता भी पाकिस्तान के निर्माण की उतनी ही जिम्मेदार है जितना कि मुस्लिम कट्टरता। कट्टरवादी हिंदुओं ने मुसलमानों को `मलेच्छ` कहकर हेय–ष्टि से देखा और यह दृढ़विश्वास व्यक्त किया कि मुसलमानों के साथ उनका सह-अस्तित्व असंभव है। आपसी अविश्वास एवं आरोप प्रत्यारोप ने दोनों संप्रदायों के कट्टरपंथियों को बढावा दिया कि वे हिंदू एवं मुस्लिम दोनों की अलग राष्ट्रीयता बताएँ। इससे मुस्लिम लीग की इस मांग को बल मिला कि सांप्रदायिक प्रश्न का यही हल है। दोनों तरफ के लोगों के निहितार्थ़ों ने अलगाववादी मानसिकता को बढावा दिया और `नफरत` को उन्होंने बडी चालाकी से जायज बताते हुए इतिहास के तथ्यों से खिलवाड किया। यह गंभीर मामला है उस देश के लिए जिसकी सोच से आज भी यह प्रश्न गायब नहीं हुआ।

शायर इकबाल, जिन्होंने प्रसिद्ध गीत `सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा` लिखा है, पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने 1930 में अलग देश के सिद्धांत को जन्म दिया। कहने की जरूरत नहीं है कि इस मनःस्थिति को हिंदू अतिवादियों ने ही मजबूत किया था। वर्ष 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा का खुला सत्र आयोजित हुआ जिसमें वीर सावरकर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा `भारत एक देश आज नहीं समझा जा सकता यहाँ दो अलग-अलग राष्ट्र मुख्य रूप से हैं - एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम (स्वातंत्र्यवीर सावरकर, खण्ड 6, पेज 296, महाराष्ट्र प्रांतीय हिंदू महासभा, पुणे) वर्ष 1945 में, उन्होंने कहा था - मेरा श्री जिन्ना से द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत से कोई विवाद नहीं है। हम, हिंदू स्वयं एक देश हैं और यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुस्लिम दो देश हैं (इंडियन एजुकेशनल रजिस्ट्रार 1943, खण्ड 2, पेज 10) यह अलगाववादी और असहमत अस्तित्व की मानसिकता दोनों पक्षों की थी जिससे पाकिस्तान के निर्माण को बल मिला।

इस मानसिकता के ठीक विपरित, गांधी अपने जीवन पर्यंत इन पर दृढ़तापूर्वक जोर देते रहे कि - ईश्वर एक है, सभी धर्म़ों का सम्मान करो, सभी मनुष्य समान हैं और अहिंसा न केवल विचार बल्कि संभाषण और आचरण में भी। उनकी दैनिक प्रार्थनाओं में सूक्तियां, धार्मिक गीत (भजन) तथा विभिन्न धर्मग्रंथों का पाठ होता था। उनमें विभि़ जातियों के लोग भाग लेते थे। अपनी मृत्यु के दिन तक गांधी का दृष्टिकोण यह था कि राष्ट्रीयता किसी भी व्यक्ति के निजी धार्मिक विचार से प्रभावित नहीं होती। अपने जीवन में अनेक बार अपनी जान को जोखिम में डालकर हिंदुओं तथा मुसलमानों में एकता के लिए काम किया। उन पर देश के विभाजन का आरोप लगाया जाता है जो गलत है। उन्होंने कहा था वे देश का विभाजन स्वीकारने के बदले जल्दी मृत्यु को स्वीकारेंगे। उनका जीवन खुली किताब की तरह है, इस संबंध में तर्क की आवश्यकता नहीं है।

गांधी के नेतृत्व में रचनात्मक कार्य़ों के जरिए सांप्रदायिक एकता ने कांग्रेस के कार्यकमों में महत्वपूर्ण स्थान पाया। राष्ट्रीय स्तर के मुस्लिम नेता एवं बुद्धिजीवी,मसलन; अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना आजाद, डॉ. अंसारी हाकिम अजमल खान, बदरूद्दीन तैयबजी, यहाँ तक कि मो. जिन्ना कांग्रेस में पनपे। यह स्वाभाविक ही था कि कांग्रेस देश के विभाजन का प्रस्ताव नहीं मानती लेकिन कुछ हिंदुओं और मुसलमानों की उत्तेजना ने देश में अफरातफरी और कानून-व्यवस्था का संकट पैदा कर दिया। सिंध, पंजाब, बलुचिस्तान पूर्वोत्तर प्रांतों और बंगाल में कानून-व्यवस्था का संकट गहरा गया। श्री  जिन्ना ने अडियल रुख अपना लिया। लॉर्ड माउंटबेटन ब्रिटिश कैबिनेट द्वारा तय समय सीमा से बंधे थे और सभी प्रश्नों का त्वरित हल चाहते थे। फलतः श्री. जिन्ना की जिद से पाकिस्तान बना।

विभाजन एकमात्र हल माना गया। वर्ष 1946 में हुए राष्ट्रीय चुनाव में मुस्लिम लीग को 90 प्रतिशत सीटें मिली । ऐसे में कांग्रेस के लिए अपनी बात रखना मुश्किल हो रहा था। गांधी ने 5 अप्रैल 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन को कहा कि अगर श्री. जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने पर देश का विभाजन नहीं होगा तो वे अंग्रेजों की यह इच्छा स्वीकार लेंगे। लेकिन दूसरी तरफ लॉर्ड माउंटबेटन कांग्रेस को देश का विभाजन के लिए मनाने में सफल रहे। गांधी को इसके बारे में अंधेरे में रखा गया। उनको जब इसका पता चला तो वे हैरान हो गए। उनके पास एकमात्र उपाय आमरण अनशन था। आत्मचिंतन के बाद वे इस नतीजे पर पहुँचे कि इससे हालात और बिगडेंगे तथा कांग्रेस एवं पूरा देश शर्मिंदा होगा।

यह कहा जाता है कि श्री. जिन्ना पाकिस्तान के सबसे बडे पैरोकार थे और लॉर्ड माउंटबेटन की प्रत्यक्ष या परोक्ष कृति से वे अपने लक्ष्य में सफल रहे। तब दोनों को अपना निशाना बनाने के बदले गोडसे ने सिर्फ गांधी की हत्या क्यों की जो अपने जीवन के अंतिम दिन तक, कांग्रेस द्वारा विभाजन का प्रस्ताव माने जाने का विरोध कर रहे थे ? कांग्रेस ने 3 जून 1947 को विभाजन का प्रस्ताव स्वीकारा था और पाकिस्तान अस्तित्व में आया। या फिर, जैसा कि वीर सावरकर ने कहा है कि जिन्ना के द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत से उनका कोई विरोध नहीं है -तो क्या सिर्फ और सिर्फ गांधी से उनका विरोध था!

इस दृष्टि से गांधी उस स्थिति में बिना विरोध के सब कुछ मान लिये गए। यह आवश्यक है कि गांधी के व्यक्तित्व के उस पक्ष को जाना जाय जिसके कारण वे कट्टर हिंदुओं की आँखों की किरकिरी बने। हालांकि वे निष्ठावान हिंदू थे, उनके अनेक अनन्य मित्र गैर हिंदू थे। इसके कारण वे `एक ईीवर, सर्व धर्म समभाव`, के सिद्धांत तक पहुँचे और उसे अपने आचरण में ढाला। उन्होंने वर्णभेद, छुआछूत को हिंदू समाज से दूर किया, अंतर्जातीय विवाह को बढावा दिया। उन्होंने उन विवाहों को आशीर्वाद दिया जिसमें वरगवधू में से कोई एक अछूत हो। सवर्ण हिंदुओं ने इस सुधारवादी पहल को गलत अर्थ़ों में लिया। इसने पागलपन की राह पकडी और वे (गांधी) उनके शिकार हुए।

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