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चरखा

गांधीजी खादी और चरखे की देश की आर्थिक रचना एवं विकास के लिए बड़ा महात्त्वपूर्ण मानते रहे। उन दिनों (1920) ग्रामवासियों को इससे उत्तम गृह उद्योग उन्हें कोई और दूसरा नजर नहें आया। बेजवाड़ा कांगेस कमेटी में जो त्रिसूची बनाई गई थी, उसे कांगेस कमेटी ने भी स्वीकारा

एक बार गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने खादी-चरखे पर गहरी आपत्ति जताई थी, जिसके प्रत्युत्तर में गांधी ने कहा-"चरखा हमारे लिए कामधेनु है आप एक धार्मिक विधि समझकर चरखा कातें।"

जिस भाँति गांधीजी आपनी मान्यता के स्वराज्य के साथ चरखे का अमिट संबंध मानते थे, ठीक उसी भाँति भारतीय व्यंग्य चित्रकार गांधी और चरखे को एक दूसरे का पर्याय मानने लगे थे। इन व्यंग्य चित्रकारों ने गांधीजी और उनके चरखे को विविध रूप में प्रस्तुत किया। सुविख्यात व्यंग्य चित्रकार रंगा (जिनका नधन 28 जुलाई, 2002 में हो गया, जो सतहत्तर वर्ष के थे) का एक चर्चित व्यंग्य यहाँ द्रष्टव्य है-

वित्र – 1

इसी तारतम्य में उन्नी का यह चित्र

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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सौ वर्ष पूरा करने की खुशी में एक ओर जहाँ हिंदुस्तानी बड़े-बड़े उत्सव मना रहे थे, वहीं दूसरी ओर एक कोने में पड़े-पड़े बापू खामोशी ओढ़े चरखा चला रहे थे। रविशंकर ने इस स्थिति को बड़ी मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया।

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अब तो बापू और चरखे की यादें ही शेष रह गई हैं। इस चित्र से यही स्पष्ट होता है।

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वर्तमान संदर्भ में चरखे की स्थिति का खुलासा देवेंद्र के इस चित्र में।

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लहरी की व्यंग्य तूलिका से गांधी का चरखा।

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सत्या की दृष्टि गांधी चरखे पर कुछ इस प्रकार से पड़ रही है।

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चरखे को अब लोग नए-नए स्वरूप में पेश कर रहे हैं, उसकी एक बानगी।

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जिस तरह से व्यंग्य चित्रकार चरखे को बहुविध रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा करते हैं, उसी तरह से गांधीजी ने भी चरखे पर अनेक प्रयोग किए। हाथ से चलने की बजाय पाँव से चलनेवाला चरख बनाया। इसमें दो हाथों से की बजाय दो तार निकालने की व्यवस्था थी। इस किस्म का यह एकमात्र चरखा था। इसकी सुरक्षा के लिए पेटी चक्र तैयार हुआ। फिर आया

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सिंपलीसिमस सन् 1930 में प्रकाशित व्यंग्य चित्र।

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गांधी विविधा

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सुदर्शन, दक्षिण भारत मे एक कारीगर ने छह तकुओं कर एक चरखा बनाया, जिसका नाम रखा गया- अंबर। प्रारंभ में यह लकड़ी से बना, फिर बाद में लोहे से बनाया गया, यदि इस चरखे का व्यवहारीकरण हो जाता तो उन दिनों कपड़ा उद्योग में क्रांति आ जाती, पर ऐसा हो नहीं पाया। गांधीजी ने `गीता` में वर्णित एवं प्रवर्तित चक्रम का जीवन-पर्यंत अनुसरण किया।

गांधीजी ने अपनी खादी यात्रा के दौरान चरखे का खूब प्रचार किया। चवन्नी की जगह कांग्रेस की सदस्यता में उन्होंने 2000 गज का सूत, अपने हाथ से कातकर दिया। बाद में इसे नियम बना दिया गया।

चरखे की महत्ता प्रतिपादित करते हुए गांधीजी लिखते हैं-ज्यों-ज्यों मैं इस देश में घूमता हूँ, त्यों-त्यों चरखे की शक्ति में मेरी श्रध्दा बढ़ती चली जाती है। वे अकसर कहा करते थे-समाजवाद का विकल्प है चरखा।

चरखा मानव के गौरव और समानता का शुध्द चिह्न है।

अब तो इस चरखे का अर्थ ही बदल गया। चरखा अब चर-खा के रूप में जाना जाने लगा।


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