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ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्य का दिव्य संदेश

आत्मसंयम

पशु और मनुष्य के बीच मुख्य अंतर यही है कि मनुष्य होश संभालते ही सतत आत्मसंयम का जीवन जीना शुरू कर देता है। ईश्वर ने मनुष्य को यह बुद्धि दी है कि वह अपनी मां, अपनी बेटी और अपनी पत्नी के बीच भेद कर सके।

विगांसी, पृ. 84

ब्रह्मचर्य की आवश्यकता

ब्रह्मचर्य के बिना मुझे जीवन फीका और पशुवत प्रतीत होता है। पशु स्वभाव से ही आत्मसंयम नहीं जानता। मनुष्य इसीलिए मनुष्य है कि वह जितना चाहे उतना आत्मसंयम बरतने में समर्थ है। जो पहले मुझे अपनी धार्मिक पुस्तकों में ब्रह्मचर्य की अतिरेकी प्रशंसा प्रतीत होती थी, वही आज अधिकाधिक स्पष्टता के साथ, पूर्णतः उचित और अनुभवाश्रित लगती है।

ए, पृ. 234

सही अर्थ

ब्रह्मचर्य का पूरी तरह पालन करने वाले स्त्री-पुरुष मनोवेगों से पूर्णतया मुक्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति ईश्वर के सान्निध्य में निवास करते हैं, वे ईश-तुल्य होते हैं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसे ब्रह्मचर्य का मनसा, वाचा, कर्मणा पूरी तरह पालन करना संभव है।

यंग, 5-6-1924, पृ. 186

परिभाषा

जब तक मन पूर्णतया इच्छाशक्ति के वश में नहीं हो जाता तब तक पूर्ण ब्रह्मचर्य की प्राप्ति संभव नहीं है। अनैच्छिक विचार मन की एक प्रवृत्ति है, इसलिए विचार पर नियंत्रण पाने का मतलब है मन को नियंत्रित करना जो वायु को नियंत्रित करने से भी अधिक कठिन है। फिर भी, अंतःकरण में ईश्वर का अस्तित्व मन को नियंत्रित करना भी संभव बना देता है। कोई यह न समझे कि चूंकि यह कठिन है इसलिए यह असंभव है। यह उच्चतम लक्ष्य है, अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास भी अधिकतम करना पडता है।

ए, पृ. 153

आंतरिक दशा

ब्रह्मचर्य ऐसा गुण नहीं है जिसका विकास बाह्य निग्रहों से किया जा सके। जो व्यक्ति स्त्री के अपरिहार्य संपर्क से भी दूर भागता है, वह ब्रह्मचर्य के संपूर्ण अर्थ को नहीं समझता...

सच्चा ब्रह्मचारी झूठे निग्रहों से दूर रहेगा। उसे अपनी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए अपने बचाव की विधियां स्वयं ही निर्धारित करनी होंगी और जैसे-जैसे वे अनावश्यक लगती जाएं, उन्हें छोडते जाना होगा। पहली चीज तो यह है कि आदमी यह जाने कि सच्चा ब्रह्मचर्य क्या है, फिर उसका मूल्य पहचाने और अंत में, इस अमूल्य गुण को विकसित करने का प्रयास करे। मेरी धारणा है कि इस देश की सच्ची सेवा करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है।

हरि, 15-6-1947, पृ. 192

मेरा ब्रह्मचर्य

जिस दिन से मैंने ब्रह्मचर्य की शुरुआत की, हम स्वतंत्र होने लगे। मेरी पत्नी एक स्वतंत्र स्त्री बन गई, उसके स्वामी के रूप में मैं उस पर जो अधिकार चलाता था उससे वह मुक्त हो गई और मैं अपनी उस भूख की गुलामी से छुटकारा पा गया जिसकी तृप्ति का साधन वह थी। किसी अन्य स्त्री के प्रति मेरे मन में उस तरह का आकर्षण नहीं था जैसा कि अपनी पत्नी के प्रति था। मैं अपनी पत्नी के प्रति इतना नैष्ठिक था और अपनी मां के सामने किए गए प्रण से इतना बंधा था कि मैं किसी अन्य स्त्री का दास नहीं बन सकता था। लेकिन मेरा ब्रह्मचर्य जिस रूप में मुझे मिला, उससे मैं स्त्री को मनुष्य की मां समझते हुए उसकी ओर अवश होकर खिंचता चला गया। वह मेरे लिए इतनी पवित्र हो गई कि भोग की वस्तु कदापि नहीं बन सकती थी। और इस प्रकार, हर स्त्री तत्काल मेरे लिए मेरी बहिन अथवा बेटी बन गई।

हरि, 4-11-1939, पृ. 326


अगर मैं स्त्रियों के प्रति यौनाकर्षण का अनुभव करता तो मुझमें इतना साहस था कि, इस उम्र में भी, बहुविवाह करने से न चूकता। मुझे स्वच्छंद प्रेम - वह प्रकट हो अथवा गुप्त में विश्वास नहीं है। स्वच्छंद और प्रकट प्रेम को मैं कुत्तों की वासना का दर्जा देता हूं। और गुप्त भोग तो, उसके अलावा, कायरतापूर्ण भी है।

वही

समाज में स्त्रियों की स्थिति और भूमिका

आदमी जितनी बुराइयों के लिए जिम्मेदार है उनमें सबसे ज्यादा घटिया, बीभत्स और पाशविक बुराई उसके द्वारा मानवता के अर्धांग अर्थात नारी जाति का दुरुपयोग है। वह अबला नहीं, नारी है। नारी जाति निश्चित रूप से पुरुष जाति की अपेक्षा अधिक उदात्त है;
आज भी नारी त्याग, मूक दुख-सहन, विनम्रता, आस्था और ज्ञान की प्रतिमूर्ति है।

यंग, 15-9-1921, पृ. 292


स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दे। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्री के हाथों में ज्यादा है। उसे पुरुष की खातिर, जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इंकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर की साझीदार बन सकेगी। मैं इसकी कल्पना नहीं कर सकता कि सीता ने राम को अपने रूप-सौंदर्य से रिझाने पर एक क्षण भी नष्ट किया होगा।

यंग, 21-7-1921, पृ. 229


यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो मैं पुरुष के इस दावे के विरुद्ध विद्रोह कर देता कि स्त्री उसके मनबहलाव के लिए ही पैदा हुई है। स्त्री के हृदय में स्थान पाने के लिए मुझे मानसिक रूप से स्त्री बन जाना पडा है। मैं तब तक अपनी पत्नी के हृदय में स्थान नहीं पा सका जब तक कि मैंने उसके प्रति अपने पहले के व्यवहार को बिलकुल बदल डालने का निश्चय नहीं कर लिया। इसके लिए मैंने उसके पति की हैसियत से प्राप्त सभी तथाकथित अधिकारों को छोड दिया और ये अधिकार उसी को लौटा दिए। आप देखेंगे कि आज वह वैसा ही सादा जीवन जीती है जैसा कि मैं।

वह न कोई आभूषण धारण करती है, न अलंकार। मैं चाहता हूं कि आप भी उसी की तरह हो जाओ। अपनी मौज-मस्तियों की गुलामी और पुरुष की गुलामी छोडो। अपना शृंगार करना छोडो, इत्र और लवैंडरों का त्याग कर दो; सच्ची सुगंध वह है जो तुम्हारे हृदय से आती है, यह पुरुष को ही नहीं अपितु पूरी मानवता को मोहित करने वाली है। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। पुरुष स्त्री से उत्पन्न होता है, उसकी मांस-मज्जा से बना है। अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करो और अपना संदेश फिर सुनाओ।

यंग, 8-12-1927, पृ. 406

अबला नहीं

नारी को अबला कहना उसकी निंदा करना है; यह पुरुष का नारी के प्रति अन्याय है। यदि शक्ति का अर्थ पाशविक शक्ति है तो सचमुच पुरुष की तुलना में स्त्री में पाशविकता कम है। और यदि शक्ति का अर्थ नैतिक शक्ति है तो स्त्री निश्चित रूप से पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ है। क्या उसमें पुरुष की अपेक्षा अधिक अंतःप्रज्ञा, अधिक आत्मत्याग, अधिक सहिष्णुता और अधिक साहस नहीं है ? उसके बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं है। यदि अहिंसा मानव जाति का नियम है तो भविष्य नारी जाति के हाथ में है... हृदय को आकर्षित करने का गुण स्त्री से ज्यादा और किसमें हो सकता है?

यंग, 10-4-1930, पृ. 121


यदि पुरुष ने अपने अविवेकपूर्ण स्वार्थ के वशीभूत होकर स्त्री की आत्मा को इस तरह कुचला न होता और स्त्री 'आनंदोपभोग' का शिकार न बन गई होती तो उसने संसार को अपनी अंतर्हितअनंत शक्ति का परिचय दे दिया होता। जब स्त्री को पुरुष के बराबर अवसर प्राप्त हो जाएंगे और वह परस्पर सहयोग और संबंध की शक्तियों का पूरा-पूरा विकास कर लेगी तो संसार स्त्री-शक्ति का उसकी संपूर्ण विलक्षणता और गौरव के साथ परिचय पा सकेगा।

यंग, 7-5-1931, पृ. 96


मेरा मानना है कि स्त्री आत्मत्याग की मूर्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से आज वह यह नहीं समझ पा रही कि वह पुरुष से कितनी श्रेष्ठ है। जैसा कि टाल्सटॉय ने कहा है, वे पुरुष के सम्मोहक प्रभाव से आक्रांत है। यदि वे अहिंसा की शक्ति पहचान लें तो वे अपने को अबला कहे जाने के लिए हरगिज राजी नहीं होंगी।

यंग, 14-1-1932, पृ. 19

स्थान-व्यतिक्रम

स्त्री पुरुष की सहचरी है, उसकी मानसिक क्षमताएं पुरुष के बराबर हैं। पुरुष के छोटे-से-छोटे कार्यकलाप में भाग लेने का उसे अधिकार है और जितनी स्वाधीनता और आजादी का हकदार पुरुष है, उतनी ही हकदार स्त्री भी है।

स्त्री को कार्यकलाप के अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान पाने का वैसा ही हक है जैसा कि पुरुष को अपने क्षेत्र में है। स्वभावतया यही स्थिति होनी चाहिए; ऐसा नहीं है कि स्त्री के पढ-लिखे जाने पर ही वह इसकी हकदार बनेगी।

गलत परंपरा के जोर पर ही मूर्ख और निकम्मे लोग भी स्त्री के ऊपर श्रेष्ठ बनकर मजे लूट रहे हैं, जब कि वे इस योग्य हैं ही नहीं और उन्हें यह बेहतरी हासिल नहीं होनी चाहिए। स्त्रियों की इस दशा के कारण ही हमारे बहुत-से आंदोलन अधर में लटके रह जाते हैं।

स्पीरा, पृ. 425


तथाकथित अबला वर्ग के ऊपर यह जो हीनावस्था विधि का नियामक होने के नाते पुरुष द्वारा आरोपित कर दी गई है, उसका उसे बहुत ही भयावह दंड भुगतना होगा। पुरुष के फंदे से आजाद होकर स्त्री जब अपने पूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त होगी और मनुष्यकृत विधान तथा उसके द्वारा गठित संस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह करेगी तो उसका विद्रोह यद्यपि अहिंसक होगा, पर फिर भी बडा प्रभावकारी सिद्ध होगा।

यंग, 16-4-1925, पृ. 133


स्त्री ने अनजाने में अनेक विचक्षण उपायों से पुरुष को विविध प्रकार से फंसाया हुआ है और इसी प्रकार, पुरुष ने भी स्त्री को अपने ऊपर वर्चस्व प्राप्त न करने देने के लिए अनजाने में उतना ही किंतु व्यर्थ संघर्ष किया है। परिणामतः एक गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस दृष्टि से देखें तो यह एक गंभीर समस्या है जिसका समाधान भारत माता की प्रबुद्ध बेटियों को करना है। उन्हें पश्चिम के तरीकों का अनुकरण नहीं करना है, जो शायद वहां के वातावरण के अनुकूल है। उन्हें भारत की प्रकृति और यहां के वातावरण को देखकर अपने तरीके लागू करने होंगे। उनके हाथ मजबूत, नियंत्रणशील, शुचिकारी और संतुलित होने चाहिए जो हमारी संस्कृति के उत्तम तत्वों को तो बचा रखें और जो कुछ निकृष्ट तथा अपकर्षकारी है, उसे बेहिचक निकाल फेंकें। यह काम सीताओं, द्रौपदियों, सावित्रियों और दमयंतियों का है, मुस्तंडियों और नखरेबाज स्त्रियों का नहीं।

यंग, 17-10-1929, पृ. 340


पुरुष ने स्त्री को अपनी कठपुतली समझ लिया है। स्त्री को भी इसका अभ्यास हो गया है और अंततः उसे यह भूमिका सरल और मजेदार लगने लगी है, क्योंकि जब पतन के गर्त में गिरने वाला व्यक्ति किसी दूसरे को भी अपने साथ खपच लेता है तो गिरने की क्रिया सरल लगने लगती है।

हरि, 25-1-1936, पृ. 396


मेरा दृढ़ मत है कि इस देश की सही शिक्षा यह होगी कि स्त्री को अपने पति से भी 'न' कहने की कला सिखाई जाए और उसे यह बताया जाए कि अपने पति की कठपुतली या उसके हाथों में गुडिया बनकर रहना उसके कर्तव्य का अंग नहीं है। उसके अपने अधिकार हैं और अपने कर्तव्य हैं।

हरि, 2-5-1936, पृ. 93

सही शिक्षा

मैं स्त्री की उचित शिक्षा में विश्वास करता हूं। लेकिन मेरा पक्का विश्वास है कि पुरुष की नकल करके या उसके साथ होड लगाकर वह दुनिया में अपना योगदान नहीं कर सकेगी। वह होड लगा सकती है, पर पुरुष की नकल करके वह उन ऊंचाइयों को नहीं छू सकती जिनका सामर्थ्य उसके अंदर है। उसे पुरुष का पूरक बनना है।

रि, 27-2-1937, पृ. 19

आत्मसंरक्षण

जो लोग सीता को राम की स्वेच्छया दासी के रूप में देखते हैं, वे सीता की स्वाधीनता की ऊंचाई या हर बात में राम द्वारा सीता के लिहाज को नहीं समझ पाते। सीता अपनी और अपने सम्मान की रक्षा में असमर्थ कोई विवश निर्बल स्त्री नहीं थी।

हरि, 2-5-1936, पृ. 93


मुझे भय है कि आधुनिक लडकी को आधे दर्जन छैलाओं की प्रेमिका बनना अच्छा लगता है। उसे जोखिम पसंद है... वह जिस तरह के वस्त्र धारण करती है वे उसे हवा, पानी और धूप से बचाने के लिए नहीं बल्कि लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए होते हैं। वह रंग-रोगन लगाकर और असाधारण दिखाई देने का प्रयास करके प्रकृतिदत्त सुंदरता को बढाने का उपक्रम करती है। अहिंसा का मार्ग ऐसी लडकियों के लिए नहीं है।

हरि, 31-12-1938, पृ. 409


स्त्रियों को अपनी सुरक्षा के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना है। उसे द्रौपदी की भांति अपने चरित्र की शक्ति और निर्मलता पर तथा ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए।

हरि, 15-9-1946, पृ. 312

सही स्थान

जीवन में जो कुछ पवित्र और धार्मिक है, स्त्रियां उसकी विशिष्ट अभिरक्षक हैं। प्रकृति से रूढिवादी होने के कारण वे यदि अंधविश्वासों को त्यागने में शिथिल हैं तो जीवन में जो कुछ पवित्र और उदात्त है, उसका त्याग करने में भी शिथिल हैं।

हरि, 25-3-1933, पृ. 2


मैं इस बात की कल्पना नहीं कर पाता कि पत्नी सामान्यतया अपने पति से स्वतंत्र कोई जीविका करे। बच्चों का पालन-पोषण और घर की देखभाल ही उसकी सारी शक्ति का इस्तेमाल करने के लिए काफी हैं।

सुव्यवस्थित समाज में, परिवार के भरण-पोषण का अतिरिक्त भार महिला पर नहीं पडना चाहिए। पुरुष परिवार के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व ले और महिला घर-गृहस्थ के प्रबंध को देखे, इस प्रकार दोनों एक-दूसरे के पूरक और अनुपूरक बनें।

मुझे इसमें स्त्री के अधिकारों अथवा उसकी आजादी के दमन की कोई बात दिखाई नहीं देती... हमारे साहित्य में पत्नी को अर्धांगिनी और सहधर्मिणी कहकर सम्मानित किया गया है। पति द्वारा पत्नी को देवी कहकर संबोधित किया जाना उसे तुच्छ समझने का बोध तो नहीं कराता।

...जो स्त्री अपने कर्तव्य को समझती है और उसे पूरा करती है, उसे अपनी गरिमामय प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। वह जिस घर की अधिष्ठात्री है, उसकी दासी नहीं अपितु स्वामिनी होती है।

हरि, 12-10-1934, पृ. 276-77


लेकिन पुरुष ने किसी-न-किसी तरह से युगों से स्त्री पर अपना प्रभुत्व जमा रखा है जिसके परिणामस्वरूप स्त्री में हीनभावना घर कर गई है। उसने पुरुष की इस स्वार्थमय सीख में विश्वास कर लिया है कि वह पुरुष से कमतर है। लेकिन मनीषियों ने स्त्री को बराबरी का दर्जा ही दिया है।

तब भी, इसमें संदेह नहीं कि एक बिंदु ऐसा है जहां से द्विशाखन होता है। यद्यपि मूल रूप से स्त्री और पुरुष समान हैं, पर यह भी सही है कि दोनों के स्वरूप में महत्वपूर्ण अंतर है। इसलिए दोनों के कार्यक्षेत्र भिन्न-भिन्न होने चाहिए।

हरि, 24-2-1940, पृ. 13

स्त्री और अहिंसा

मेरा विश्वास है कि अहिंसा के उच्चतम और सर्वोत्कृष्ट स्वरूप का प्रदर्शन करना स्त्री का जीवन-लक्ष्य है... कारण यह है कि अहिंसा के क्षेत्र में खोज करने और साहसिक कदम उठाने के लिए स्त्री अधिक उपयुक्त है... आत्मत्याग का साहस पुरुष की अपेक्षा स्त्री में निश्चित रूप से कहीं ज्यादा है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि पशुता का साहस पुरुष में स्त्री की अपेक्षा ज्यादा है।

हरि, 5-11-1938, पृ. 317


मेरी अपनी राय में चूंकि पुरुष और स्त्री मूलतः एक हैं, अतः उनकी समस्या भी तत्वतः एक होनी चाहिए। दोनों में एक ही आत्मा का वास है। दोनों एक-सा जीवन जीते हैं, दोनों की भावनाएं एक जैसी होती हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दूसरे की सक्रिय सहायता के बिना इनमें से कोई भी जी नहीं सकता।

हरि, 24-2-1940, पृ. 13


मैंने कहा है कि... स्त्री अहिंसा का अवतार है। अहिंसा का अर्थ है असीम प्रेम, जिसका अर्थ है पीडा भोगने का असीम सामर्थ्य। यह सामर्थ्य स्त्री, जो पुरुष की मां है, से अधिक और किसमें है ? अपने गर्भ में नौ मास तक शिशु का पोषण करके और उस क्लेश को प्रसन्नतापूर्वक झेलकर वह इस सामर्थ्य का प्रचुर प्रमाण देती है। प्रसव-पीडा से बडी पीडा कोई और है ? लेकिन सृजन के सुख में वह उसे भी भुला देती है।

बच्चे के दैनंदिन विकास के लिए और कौन है जो रोज खटता है ? स्त्री को चाहिए कि वह इस प्रेम का विस्तार करके समूची मानवता को इसमें समाविष्ट कर ले और यह भूल जाए कि वह पुरुष की वासना का विषय है। यदि ऐसा हो सके तो वह पुरुष के साथ उसकी मां, उसकी सृष्टिकर्ता और उसकी मूक पथप्रदर्शिका के रूप में अपने गौरवमय पद की प्राप्ति कर सकेगी। शांति के लिए व्याकुल युद्धरत संसार को शांति का पाठ स्त्री को ही पढाना है।

वही, पृ. 13-14

विशेष जीवन-लक्ष्य

मातृत्व का कर्तव्य, जो अधिकांश स्त्रियां सदा निभाएंगी, वहन करने के लिए जिन गुणों की अपेक्षा होती है, उनका पुरुष में होना आवश्यक नहीं है। स्त्री निक्रिय है, पुरुष सक्रिय है। मुख्यतया, वह गृहस्वामिनी है। पुरुष रोजी कमाता है, स्त्री भोजन की व्यवस्था और वितरण करती है। वह हर दृष्टि से रक्षक की भूमिका निभाती है। प्रजाति के शिशुओं को पाल-पोसकर बडा करना उसका विशिष्ट तथा एकल अधिकार है। वह देखभाल न करे तो संपूर्ण प्रजाति लुप्त हो जाए।

मेरी राय में, स्त्री से गृहस्थ के संचालन की जिम्मेदारी छोडकर उसकी रक्षा के लिए बंदूक उठाने को कहना पुरुष और स्त्री, दोनों के लिए गिरावट की बात है। यह बर्बरता की ओर लौटना है और अंत की शुरुआत है। पुरुष जिस घोडे पर सवार है उसी पर सवारी करने की कोशिश में स्त्री स्वयं भी गिरेगी और अपने साथ पुरुष को भी गिराएगी।

यदि पुरुष ने स्त्री को अपनी विशिष्ट भूमिका त्यागने के लिए प्रलोभित अथवा बाध्य किया तो इसका पाप मनुष्य के सिर पर ही होगा। अपने घर को सुव्यवस्थित रखने में भी उतनी ही वीरता है जितनी कि उसकी बाह्य आक्रमण से रक्षा करने में...

इस गहन समस्या के समाधान में मेरा योगदान यह है कि मैं जीवन के हर क्षेत्र में, व्यक्तियों और राष्ट्रों, दोनों के समक्ष सत्य और अहिंसा को अपनाने का प्रस्ताव रखता हूं। मैंने यह आशा बांध रखी है कि इसमें स्त्री निर्विवाद नेता बनकर सामने आएगी और इस प्रकार मानव के विकास में अपना स्थान सुनिश्चित करने के फलस्वरूप वह अपनी हीन भावना का भी त्याग कर सकेगी।

यदि वह सफलतापूर्वक ऐसा कर सकी तो वह इस आधुनिक सीख में विश्वास करने से भी दृढ़तापूर्वक इंकार कर देगी कि इस दुनिया में हर चीज यौन आवेग द्वारा निर्धारित और विनियमित होती है...

वही, पृ. 13


स्वयं पीडा भोगना स्त्री के स्वभाव में है। इसलिए अहिंसा उसके लिए अधिक सहज है।

हरि, 5-5-1946, पृ. 118


मैं पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों से अधिक प्रेम और सहिष्णुता की आशा करता हूं। मुझे आश्चर्य है कि वे भटक कर किधर जा रही हैं और अगर उनके घरों में घृणा का वातावरण फैल गया तो वे अपने बच्चों को क्या सिखाएंगी या सिखा सकेंगी ?

हरि, 18-5-1947, पृ. 155

स्त्री-पुरुष समानता

जहां तक स्त्रियों के अधिकारों का सवाल है, मैं कोई समझौता नहीं करूंगा। मेरी राय में, उन्हें ऐसी किसी कानूनी निर्योग्यता का शिकार नहीं बनाया जाना चाहिए जो पुरुष पर लागू नहीं होतप। मैं बेटे और बेटियों के साथ बिलकुल एक जैसा व्यवहार करना चाहूंगा।

हरि, 17-10-1929, पृ. 340


स्त्री-पुरुष समानता का यह अर्थ नहीं है कि काम-धंधे भी समान हों। यह सही है कि स्त्री के आखेट करने अथवा भाला लेकर चलने पर कोई कानूनी बंदिश नहीं होनी चाहिए। लेकिन जो काम पुरुष का है, उसे करने से वह स्वभावतया झिझकती है। प्रकृति ने स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे का पूरक बनाया है। जिस प्रकार उनके शरीर के आकार परिभाषित हैं उसी प्रकार उनके काम भी परिभाषित हैं।

हरि, 2-12-1939, पृ. 359


कानून बनाने का काम ज्यादातर पुरुषों के हाथ में रहा है, और इस स्वनिर्धारित काम को करते समय पुरुष ने सदा औचित्य और विवेक से काम नहीं लिया है। स्त्रियों के पुनरुद्धार का सबसे बडा काम यह है कि हम उन कलंकों को मिटा दें जिन्हें हमारे शास्त्राsं ने स्त्रियों के अनिवार्य और स्वभावगत लक्षण बताया है। इसे कौन करेगा और कैसे करेगा ?

मेरी विनम्र सम्मति में, इसके लिए हमें सीता, दमयंती और द्रौपदी जैसी निर्मल, दृढ और आत्मनियंत्रित महिलाएं पैदा करनी होंगी। यदि हम यह कर सकें तो हिंदू समाज इन आधुनिक बहनों को भी वही आदर देगा जो वह बीते युग की महान देवियों को देता आया है। उनके शब्द भी शास्त्र के समान प्रामाणिक माने जाएंगे। हम अपनी स्मृतियों में उन पर कहीं-कहीं किए गए आक्षेपों के लिए शर्म महसूस करेंगे और जल्दी ही उन्हें भुला देंगे। हिंदू समाज में ऐसी क्रांतियां पहले हुई हैं और भविष्य में भी होंगी; वस्तुतः इससे धर्म को स्थिरता प्राप्त होगी।

स्पीरा, पृ. 424


मैं स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं करता। स्त्रियों को भी पुरुषों के समान स्वयं को स्वाधीन अनुभव करना चाहिए। वीरता केवल पुरुषों की बपौती नहीं है।

हरि, 5-1-1947, पृ. 478


आज बहुत कम महिलाएं राजनीति में भाग लेती हैं और इनमें से अधिकांश स्वतंत्र चिंतन नहीं करतप। वे अपने माता-पिता अथवा अपने पति के आदेशों का पालन करके ही संतोष का अनुभव कर लेती हैं। अपनी निर्भरता का अहसास होने पर वे स्त्री-अधिकार की आवाज बुलंद करने लगती हैं। महिला कार्यकर्ताओं को चाहिए कि ऐसा करने के बजाए स्त्रियों के नाम मतदाता सूचियों में लिखाएं, उन्हें व्यावहारिक शिक्षा दें या दिलाने की व्यवस्था करें, उन्हें स्वतंत्र रूप से सोचने की सीख दें और जात-पांत के बंधनों से मुक्त कराएं ताकि बदलाव आए। इससे पुरुष उनकी शक्ति और त्याग की क्षमता को पहचानने और उन्हें प्रतिष्ठित स्थानों पर बिठाने के लिए बाध्य होंगे।

हरि, 21-4-1946, पृ. 96


स्त्रियों का स्वयं को पुरुषों के अधीन या उनसे हीन समझने का कोई कारण नहीं है। विभिन्न भाषाओं में स्त्री को पुरुष का अर्धांग कहा गया है और इसी तर्क से, पुरुष स्त्री का अर्धांग हुआ। ये अलग सत्ताएं नहीं हैं, बल्कि एक ही के दो भाग हैं। अंग्रेजी भाषा और भी आगे बढते हुए स्त्री को पुरुष का बेहतर अर्धांग (बैटर हाफ) कहकर पुकारती है।

इसलिए स्त्रियों को मेरी सलाह है कि वे सभी अवांछनीय और निकम्मी बंदिशों के खिलाफ सविनय विद्रोह करें। बंदिशें वे ही फायदा पहुंचा सकती हैं जो स्वैच्छिक हों। सविनय विद्रोह से कोई हानि होने की आशंका नहीं है, चूंकि उसके मूल में शुद्धता और सुविवेचित प्रतिरोध होते हैं।

हरि, 23-3-1947, पृ. 80


पुरुष को चाहिए कि स्त्री को उचित स्थान देना सीखे; जिस देश अथवा समुदाय में स्त्री का आदर नहीं होता, उसे सुसंस्कृत नहीं कहा जा सकता।

हरि, 11-1-1948, पृ. 508

पर्दा

स्त्री के चरित्र की निर्मलता को लेकर इतनी विकृत चिंता करने की क्या जरूरत है ? क्या पुरुष के चरित्र की निर्मलता के मामले में स्त्री को बोलने दिया जाता है ? पुरुष की पाकीजगी के बारे में स्त्री की चिंता की बात कभी सुनाई नहीं देती। स्त्री के चरित्र की निर्मलता को विनियमित करने का अधिकार पुरुष के हाथों में क्यों रहे ? यह चीज ऊपर से नहीं थोपी जा सकती। यह अंदर से पैदा होने वाली चीज है, इसलिए यह व्यक्ति के अपने प्रयास पर छोडनी होगी।

यंग, 25-11-1926, पृ. 415


सतीत्व किसी तापगृह में विकसित नहीं होता। पर्दे की दीवार खडी करके उसकी रक्षा नहीं की जा सकती। यह अंदर से पैदा होने वाली चीज है और इसका महत्व तभी है जब यह प्रत्येक अयाचित प्रलोभन का मुकाबला कर सके।

यंग, 3-2-1927, पृ. 37

दहेज प्रथा

यह प्रथा समाप्त होनी ही चाहिए। विवाह माता-पिता द्वारा पैसे के जुगाड का साधन नहीं रहना चाहिए। इस प्रथा का जाति प्रथा से घनिष्ठ संबंध है। जब तक चयन का क्षेत्र किसी जाति-विशेष के कुछ सौ युवा लडके अथवा लडकियों तक सीमित रहेगा, दहेज प्रथा कायम रहेगी, भले ही उसके विरोध में कितनी ही आवाज उठाई जाए। अगर इस बुराई का उन्मूलन करना है तो लडके-लडकियों या उनके माता-पिताओं को जाति के बंधन तोडने होंगे। इसके लिए हमारी शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो राष्ट्र की युवा पीढी की मानसिकता में क्रांति ला दे।

हरि, 23-5-1936, पृ. 117


जो युवक दहेज को अपनी शादी की शर्त बनाता है, वह अपनी शिक्षा और देश को बदनाम करता है और स्त्रीत्व का अनादर करता है।

...दहेज की कुत्सित प्रथा के विरुद्ध जबर्दस्त जनमत तैयार किया जाना चाहिए और जो युवक इस पाप के पैसे से अपने हाथ काले करें, उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए। लडकियों के माता-पिताओं को अंग्रेजी उपाधियों की चकाचौंध में नहीं आना चाहिए और अपनी लडकियों के लिए सच्चे वीर युवक ढूंढने के लिए अपनी जाति अथवा प्रांत से बाहर जाने में संकोच नहीं करना चाहिए।

यंग, 21-6-1929, पृ. 207

विधवा पुनर्विवाह

अपने जीवन-साथी के प्रेमवश यदि कोई विधवा जान-बुझकर स्वेच्छा से वैधव्य स्वीकार करती है तो वह अपने घर को पवित्र करती है और स्वयं धर्म का उन्नयन करती है। लेकिन धर्म या प्रथा द्वारा आरोपित वैधव्य एक असहनीय भार है और यह घर को गुप्त पाप से अपवित्र करता है तथा धर्म का पतन करता है।

यदि हमें शुद्ध रहना है और हिंदुत्व की रक्षा करनी है तो हमें इस बलात वैधव्य के विष से अपने आपको मुक्त करना चाहिए। इस सुधार की शुरुआत उन घरों से की जानी चाहिए जिनमें बाल विधवाएं हैं। लोगों को साहस करके अपने अभिभावकत्व में रहने वाली बाल विधवाओं का बाकायदा अच्छी जगह विवाह कर देना चाहिए। मैं 'पुनर्विवाह' शब्द का प्रयोग इसलिए नहीं कर रहा कि उनका तो वस्तुतः विवाह कभी हुआ ही नहीं था।

यंग, 5-8-1926, पृ. 276

तलाक

विवाह दो व्यक्तियों के बीच शरीर-संबंध के अधिकार की पुष्टि करता है; इसमें यह बात निहित है कि वे किसी अन्य व्यक्ति से शरीर-संबंध नहीं रखेंगे। पति-पत्नी के बीच शरीर-संबंध, उनकी संयुक्त सम्मति से, उनके द्वारा जब वांछनीय समझा जाए तब होगा। लेकिन विवाह पति अथवा पत्नी को यह अधिकार नहीं देता कि वह जब चाहे, शरीर-संबंध के लिए अपने साथी को विवश करे। यदि एक साथी नैतिक अथवा अन्य कारणों से दूसरे साथी की इच्छा का पालन न करे तो उस स्थिति में क्या किया जाना चाहिए, यह एक अलग प्रश्न है। व्यक्तिगत रूप से, अगर तलाक ही एकमात्र विकल्प हो तो मैं अपनी नैतिक प्रगति में बाधा डालने के बजाए तलाक के विकल्प को चुनने में हिचकिचाऊंगा नहीं, बशर्ते कि मेरा इरादा विशुद्ध नैतिक आधार पर स्वयं को संयमित करने का हो।

यंग, 8-10-1925, पृ. 346

यौन शिक्षा

हमारी शिक्षा पद्धति में यौन विज्ञान की शिक्षा का क्या स्थान है, या उसका कोई स्थान होना भी चाहिए अथवा नहीं? यौन विज्ञान दो प्रकार का है - एक वह जो काम के आवेग को नियंत्रित अथवा उस पर विजय पाने से संबंधित है और दूसरा, जो उसे उद्दीप्त करने और तृप्त करने से संबंधित है। पहले प्रकार के यौन विज्ञान की शिक्षा बच्चे के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी कि दूसरे प्रकार की यौन शिक्षा हानिकारक और खतरनाक है और इसलिए सर्वथा त्याज्य है। सभी महान धर्म़ों ने काम को मनुष्य का सबसे कट्टर शत्रु माना है, जो ठीक भी है; क्रोध अथवा घृणा का नंबर उसके बाद ही आता है। गीता के अनुसार, क्रोध काम से ही उत्पन्न होता है। वैसे, गीता में 'काम' को व्यापक अर्थ में लिया गया है। लेकिन यह उस संकुचित अर्थ पर भी उसी प्रकार लागू होता है जिसमें हम यहां उसका प्रयोग कर रहे हैं।

हमारा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है - क्या किशोर वय के बच्चों को प्रजनन अंगों के प्रयोग और उनके कार्य का ज्ञान कराना वांछनीय है? मुझे लगता है कि एक सीमा तक ऐसा ज्ञान कराना आवश्यक है। वर्तमान में, वे यह ज्ञान यहां-वहां से चुराते हैं जिसके परिणामस्वरूप अनेक कुप्रवृत्तियां जन्म लेती हैं। हम काम के आवेग की ओर से आंख मूंदकर उसे नियंत्रित अथवा जीत नहीं सकते। इसलिए मैं पक्के तौर पर इस बात का समर्थन करता हूं कि किशोर वय के लडके-लडकियों को अपने प्रजनन अंगों के महत्व और प्रयोग की शिक्षा दी जानी चाहिए। मैंने, अपने तरीके से, उन किशोर लडके-लडकियों को जिनके प्रशिक्षण का दायित्व मेरे ऊपर था, यह ज्ञान देने का प्रयास किया भी है।

लेकिन जिस यौन शिक्षा का समर्थन मैं कर रहा हूं, उसका ध्येय काम के आवेग को जीतना और उसका उदात्तीकरण होना चाहिए। इस शिक्षा से बच्चों के मन में अपने आप यह बात घर कर जानी चाहिए कि मनुष्य और पशु के बीच में एक मौलिक भेद है और वह यह कि प्रकृति ने मनुष्य को सोचने और महसूस करने, दोनों की योग्यताएं देकर विशेष रूप से उपकृत किया है। 'मनुष्य' शब्द का अर्थ ही यह है कि वह ऐसा जीव है जो केवल महसूस ही नहीं कर सकता बल्कि सोच भी सकता है। इसलिए विवेकशून्य वृत्तियों के ऊपर विवेक के प्रभुत्व को त्यागना मनुष्यत्व को ही त्यागने के समान है। मनुष्य तेजी से सोच सकता है और यह सोच उसकी वृत्तियों को निर्देशित कर सकता है। इसके विपरित, पशु की आत्मा सुप्तावस्था में रहती है। हृदय को जगाना आत्मा को जगाना है जिससे विवेक जाग्रत होता है और भलेगबुरे के बीच भेद करने की क्षमता विकसित होती है।

इस सच्चे यौन विज्ञान की शिक्षा कौन दे ? जाहिर है कि यह शिक्षा वही दे सकता है जिसने अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली हो। खगोलशास्त्र और विज्ञान की अन्य शाखाओं को पढाने के लिए ऐसे अध्यापक नियुक्त किए जाते हैं जिन्होंने उनका प्रशिक्षण लिया है और जिन्हें अपने विषय का प्रामाणिक ज्ञान है। इसी प्रकार यौन विज्ञान अर्थात यौन नियंत्रण की शिक्षा देने वाले अध्यापक ऐसे होने चाहिए जिन्होंने इस विषय का अध्ययन किया है और जो स्वयं पर नियंत्रण पा चुके हैं। आप कितनी ही ऊंची-ऊंची बातें कीजिए, पर जब तक उनके पीछे ईमानदारी और अनुभव नहीं होगा तब तक वे जड और निष्प्राण रहेंगी और लोगों के हृदय में पैठने और उन्हें प्रेरित करने में नितांत असफल सिद्ध होंगी। इसके विपरित, जो वाणी आत्मसिद्धि और सच्चे अनुभव से उद्भूत होती है, वह सदा अपने उद्देश्य में सफल होती है।

आज हमारा संपूर्ण पर्यावरण- हमारी पढाई, हमारा चिंतन और हमारा सामाजिक व्यवहार - प्रायः कामेच्छा को सहारा देने और उसकी पूर्ति के उपाय करने की ओर प्रवृत्ति है। इसके चंगुल से निकलना आसान नहीं है। लेकिन हमें इसके लिए पूरा जोर लगा देना चाहिए। अगर थोडे-से भी अध्यापक ऐसे हों जिन्हें व्यावहारिक अनुभव हो, जो आत्मनियंत्रण को मनुष्य का सर्वोच्च कर्तव्य मानते हों और जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के प्रति सच्चे तथा अमिट विश्वास से अनुप्राणित हों तो उनका श्रम बच्चों के जीवन-पथ को आलोकित कर सकता है... असावधानों को कामुकता के दलदले में फंसने से बचा सकता है और जो पहले ही उसके शिकार हो चुके हैं, उनका उद्धार कर सकता है।

हरि, 21-11-1936, पृ. 322

स्त्रियों के विरुद्ध अपराध

औरत की आबरू

मेरी सदा से यह धारणा रही है कि स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ कुकृत्य करना असंभव है। ऐसा तभी होता है जब वह भयग्रस्त हो जाती है या अपनी नैतिक शक्ति को नहीं पहचान पाती। यदि वह आक्रांता की शारीरिक शक्ति का मुकाबला न कर पाए तो उसके चरित्र की निर्मलता उसे पुरुष की पाशविकता का शिकार होने से पहले ही अपने प्राण दे देने की शक्ति प्रदान करेगी।

सीता का उदाहरण लीजिए। शारीरिक दृष्टि से वह रावण के आगे कमजोर थी, लेकिन उसकी चारित्रिक निर्मलता रावण के अकूत बल पर भी भारी थी। उसने सीता को अनेक प्रकार के प्रलोभन दिए, पर वह सीता की सहमति के बिना उसके शरीर का स्पर्श नहीं कर सका। इसके विपरित, यदि स्त्री अपनी शारीरिक शक्ति या हथियार पर भरोसा करे तो उस शक्ति के चूकते ही वह परास्त हो जाएगी।

हरि, 1-9-1940, पृ. 266


मेरी निश्चित धारणा है कि जो स्त्री निर्भय है और यह जानती है कि उसकी चारित्रिक निर्मलता उसकी सबसे बडी ढाल है, उसकी आबरू कभी नहीं लुट सकती। पुरुष कितना ही पाशविक हो, वह उसकी निर्मलता के अग्निस्तंभ के सामने शर्म से झुक जाएगा...

इसीलिए मैं महिलाओं से कहता हूं... यह साहस पैदा करने की कोशिश करो। अगर वे ऐसा कर सकें तो वे निर्भय हो जाएंगी और आक्रमण का विचार मन में आते ही आज की तरह कांपना बंद कर देंगीकृ अभिभावकों और पतियों को चाहिए कि महिलाओं को निर्भय बनने की शिक्षा दें। इसका सबसे अच्छा तरीका ईश्वर में जाग्रत आस्था पैदा करना है। यद्यपि ईश्वर दिखाई नहीं देता, पर वह मनुष्य का अचूक संरक्षक है। जिसे ईश्वर में आस्था है, वह व्यक्ति सर्वाधिक निर्भय होता है...

जब स्त्री पर आक्रमण हो तो उसे हिंसा, अहिंसा की बात नहीं सोचनी चाहिए। उसका प्रमुख कर्तव्य अपनी रक्षा करना है। अपनी आबरू को बचाने के लिए जो भी उपाय उसको सूझे, वह उसे अपनाए। ईश्वर ने उसे नाखून और दांत दिए हैं। उसे अपनी पूरी ताकत के साथ उनका इस्तेमाल करना चाहिए और जरूरी हो तो इस प्रयास में जान दे देनी चाहिए। जिस पुरुष या स्त्री ने मृत्यु के भय को जीत लिया है, वह अपनी जान देकर स्वयं अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता बल्कि दूसरों की भी कर सकता है।

हरि, 1-3-1942, पृ. 60


जिस समाज में हम रह रहे हैं उसमें स्त्री की आबरू पर इस तरह के हमले होते रहते हैं... अहिंसक स्त्री अथवा पुरुष को अपनी आत्मरक्षा के लिए अथवा अपने घर की स्त्रियों की आबरू बचाने के लिए प्रतिकार, क्रोध या दुर्भावना मन में लाए बगैर अपने जीवन की बलि दे देनी चाहिए। यह परम वीरता है।

हरि, 15-9-1946, पृ. 312


वीरता और इज्जत के साथ मरने की कला सीखने के लिए किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती; इसके लिए केवल ईश्वर में जाग्रत विश्वास चाहिए।

हरि, 5-10-1947, पृ. 354

वेश्यावृत्ति

वेश्यावृत्ति उतनी ही पुरानी है जितनी यह दुनिया, लेकिन आज यह जिस प्रकार नगर-जीवन का एक नियमित लक्षण बन गई है, वैसी शायद पहले कभी नहीं थी। जो भी हो, एक वक्त ऐसा जरूर आएगा जब मानवता इस अभिशाप के विरुद्ध विद्रोह कर देगी और वेश्यावृत्ति बीते जमाने की चीज हो जाएगी। मानवता ने अनेक कुरीतियों से, भले ही वे बहुत अर्से से चली आ रही हों, इसी तरह छुटकारा पाया है।

यंग, 28-5-1925, पृ. 187


वेश्यावृत्ति के साथ निपटने का सही तरीका यह है कि महिलाएं दोहरा प्रचार करेः (अ) उन स्त्रियों के बीच जो आजीविका के लिए अपना शरीर बेचती हैं, और (आ) पुरुषों के बीच, जिन्हें वे अपनी उन बहनों के प्रति बेहतर व्यवहार करने के लिए मजबूर करें जिन्हें वे अज्ञानता या धृष्टतावश अबला कह कर पुकारते हैं।


मुझे याद है कि वर्ष़ों पहले, उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में, वीर साल्वेशन आर्मी के सदस्य, अपने प्राणों को दांव पर लगाकर, बंबई की बदनाम गलियों में जहां वेश्यागृह थे, धरना दिया करते थे। कोई कारण नहीं कि ऐसे ही अभियान और बडे पैमाने पर न चलाए जा सकें।

हरि, 4-9-1937, पृ. 233


'वेश्या' शब्द व्यभिचारिणी स्त्री के लिए प्रयुक्त होता है। लेकिन वेश्यागामी पुरुष भी उन स्त्रियों से कम पाप के भागी नहीं हैं, जो अनेक मामलों में, अपना पेट भरने के लिए ही अपने शरीर को बेचती हैं। इस कुप्रथा को अवैध घोषित कर देना चाहिए। लेकिन कानून भी एक सीमा तक ही मदद कर सकता है। कानून के बावजूद प्रत्येक देश में चोरी-छिपे शरीर का व्यापार चलता है। इसमें जाग्रत लोकमत कानून की उसी प्रकार सहायता कर सकता है जिस प्रकार वह अनेक कानूनों को व्यर्थ कर देता है।

हरि, 15-9-1946, पृ. 310

आश्रम के व्रत

मैंने जीवन का एक सूत्र माना है और वह यह कि आदमी चाहे जितना बडा हो, उसके द्वारा किया गया कोई काम तब तक नहीं फले-फूलेगा जब तक कि वह व्यक्ति धर्मनिष्ठ न हो। लेकिन धर्म है क्या ?... मेरा उत्तर है : धर्म वह नहीं है जो तुम्हें दुनिया भर के धर्मग्रंथों को पढने पर मिलेगा; धर्म वस्तुतः बुद्धिग्राह्य नहीं है, यह हृदयग्राह्य है। यह हमारे लिए कोई बाहर की चीज नहीं है, बल्कि इसका विकास हमारे भीतर से ही होता है। यह हमेशा हमारे भीतर रहता है : कुछ को इसका बोध होता है, कुछ इससे बेखबर रहते हैं। लेकिन यह रहता हमेशा है; हम अपने अंदर विद्यमान इस धार्मिक वृत्ति को बाहरी सहायता से जगाएं या आंतरिक विकास करके, हम जो भी तरीका अपनाएं; पर अगर हम कोई काम ठीक ढंग से करना चाहते हैं या ऐसा कुछ करना चाहते हैं जो टिकने वाला हो तो हमें अपनी धार्मिक वृत्ति को जगाना अवश्य होगा।

हमारे धर्मग्रंथों ने कुछ नियम निर्धारित किए हैं जिन्हें उन्होंने जीवन के सूत्र और स्वयंसिद्ध बातें कहा है जिनको हमें स्वतः स्पष्ट सत्य मानकर चलना है... इनमें वर्ष़ों तक गहन विश्वास करते हुए और उन पर वस्तुतः आचरण करने का प्रयास करते हुएकृमैंने उन लोगों का साथ लेना आवश्यक समझा है जो इस संस्था की स्थापना में मेरे वैचारिक साथी रहे हैं... जो नियमावली तैयार की गई है और जिसका पालन आश्रम की सदस्यता चाहने वाले हर व्यक्ति को करना अनिवार्य है, इस प्रकार है :

सत्य का व्रत

यहां सत्य से आशय वह नहीं है जो हम सामान्यतया समझते हैं; सत्य से आशय वह भी नहीं है जो 'सत्यवादिता सबसे अच्छी नीति है' में प्रतिध्वनित होता है जिसका निहितार्थ यह है कि अगर यह सबसे अच्छी नीति न हो तो हम इसका त्याग कर सकते हैं। आश्रम में सत्य से आशय यह है कि हमें अपने जीवन को हर कीमत पर सत्य के नियम के अनुसार चलाना है, और इसे परिभाषित करने के लिए मैंने प्रहलाद के दृष्टांत को आदर्श माना है। सत्य की रक्षा के लिए प्रहलाद ने स्वयं अपने पिता का विरोध करने का साहस किया, उन्होंने प्रतिकार द्वारा अथवा पिता के विरुद्ध जबाबी कार्रवाई करके अपनी रक्षा नहीं की। लेकिन सत्य को जैसा प्रहलाद जानते थे, उसकी रक्षा के लिए वे अपने पिता और उनके अनुचरों द्वारा दी गई यातनाओं का प्रतिकार किए बिना अपने प्राण देने के लिए प्रस्तुत हो गए। यही नहीं, उन्होंने उन यातनाओं से स्वयं को बचाने का भी प्रयास नहीं किया; उन्होंने अपने होठों पर मुस्कान लिए हुए वे सभी असंख्य यातनाएं झेलप जिनके परिणामस्वरूप अंत में सत्य की विजय हुई। प्रहलाद ने यातनाएं इसलिए नहीं झेलप कि उन्हें पता था कि अपने जीवनकाल में ही एक-न-एक दिन वे सत्य के नियम की अचूकता को अवश्य सिद्ध कर सकेंगे। होना तो यही था, लेकिन अगर यातनाएं झेलते-झेलते उनके प्राण भी चले जाते तो भी वे सत्य पर दृढ रहते। यही वह सत्य है जिसका मैं पालन करना चाहूंगा... आश्रम का नियम है कि जब हम 'न' कहना चाहें तो हमें 'न' ही कहना चाहिए, भले ही उसका परिणाम कुछ भी हो।

अहिंसा का सिद्धांत

अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है 'न मारना'। लेकिन मेरी दृष्टि में इसके हजारों अर्थ हैं जो मुझे बडी ऊंचाई, बल्कि कहूं कि अनंत ऊंचाई के दर्शन कराते हैं... अहिंसा का वास्तविक आशय है कि तुम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाओगे; जो व्यक्ति तुम्हें अपना शत्रु समझता है, उसके लिए भी अपने मन में द्वेष की भावना नहीं लाओगे। जो व्यक्ति इस सिद्धांत में विश्वास करता है, वह किसी को अपना शत्रु नहीं मानता... फिर भी कुछ लोग ऐसे जरूर होते हैं जो स्वयं को उसका शत्रु मानते हैं... इसलिए हमने यह धारणा बनाई है कि ऐसे लोगों के बारे में भी अपने मन में दुर्भावना न लाएं। अगर हम घूंसे का जवाब घूंसे से देंगे तो हम अहिंसा के सिद्धांत से च्युत हो जाएंगे। मैं इससे भी एक कदम आगे जाता हूं। अगर हम अपने किसी मित्र या तथाकथित शत्रु की कार्रवाई का बुरा मान जाएं तो यह भी अहिंसा के सिद्धांत से विचलित होना है। जब मैं कहता हूं कि 'बुरा न मानें' तो मेरा आशय यह नहीं है कि उसके प्रति मौन साध लें, बल्कि 'बुरा न मानने' से मेरा तात्पर्य यह है कि हम यह मनौती न मनाएं कि शत्रु का किसी तरह अपकार हो जाए, या कि वह समाप्त हो जाए - हमारी या किसी अन्य व्यक्ति की कार्रवाई के कारण ही नहीं, बल्कि दैवी घटना के फलस्वरूप भी नहीं। यदि हम ऐसी मनौती भी मानते हैं तो वह भी अहिंसा के सिद्धांत से विचलित होना है। जो व्यक्ति आश्रम के सदस्य बनना चाहते हैं, उनके लिए अहिंसा के इस अर्थ को शब्दशः स्वीकार करना अनिवार्य है।

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम इस सिद्धांत पर शत-प्रतिशत आचरण करते हैं। ऐसा कहां कर पाते हैं ? यह तो एक आदर्श है जो हमें प्राप्त करना है और यदि हम इसे प्राप्त करने में समर्थ हों तो यह इसी क्षण प्राप्त करने योग्य है। लेकिन यह कोई ज्यामितिक साध्य नहीं है और न ही उच्चतर गणित का कोई कठिन प्रश्न है - यह इन सबसे कहीं ज्यादा कठिन चीज है। तुममें से बहुतों ने उन समस्याओं को सुलझाने के लिए कठिन परिश्रम किया है। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करना चाहते हो तो तुम्हें कठिन परिश्रम से भी कहीं ज्यादा उद्योग करना होगा। तुम्हें जाने कितनी रातें आंखों-ही-आंखों में काट देनी होंगी और अनेक मानसिक यातनाओं तथा घोर पीडाओं से गुजरना होगा, तब कहीं जाकर तुम्हें वह लक्ष्य दिखाई देगा। अगर हम यह जानना चाहते हैं कि धार्मिक जीवन क्या होता है तो तुम्हें और मुझे इस लक्ष्य को प्राप्त करना ही होगा; इससे कम किसी चीज से काम नहीं चलेगा।

ब्रह्मचर्य का व्रत

जो राष्ट्रसेवा करना चाहते हैं अथवा सच्चे धार्मिक जीवन की झलक पाना चाहते हैं उन्हें, वे विवाहित हों या अविवाहित, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। विवाह केवल स्त्री को पुरुष के निकट लाता है और वे एक विशेष अर्थ में मित्र बन जाते हैं - मित्रता का यह बंधन न इस जन्म में टूटता है और न अगले जन्मों में। लेकिन मैं नहीं समझता कि विवाह की हमारी जो धारणा है, उसमें कामवासना का प्रवेश होना चाहिए। जो भी हो, हम आश्रम में आकर रहने वालों के सामने यह व्रत प्रस्तुत करते हैं। मैं यहां इसकी और चर्चा नहीं करूंगा।

रसनेंौिय के नियंत्रण का व्रत

जो आदमी सरलता के साथ अपनी वासनाओं पर नियंत्रण स्थापित करना चाहता है, उसे अपनी रसनेंौिय को वश में करना चाहिए। मुझे मालूम है कि यह व्रत सबसे कठिन है - जब तक हम उद्दीपक, गरम और उत्तेजक मसालों से छुटकारा पाने के लिए कमर नहीं कसेंगे... हम वासनाओं के अतिरेकी, अनावश्यक और उत्तेजक उद्दीपन को नियंत्रित नहीं कर पाएंगे... यदि हमने ऐसा न किया... तो हम ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस शरीर रूपी पवित्र थाती का दुरुपयोग करेंगे और पशुओं से भी बदतर जीवन जीते हुए खान, पान, मैथुन आदि उन्हीं वासनाओं में लिप्त रहे आएंगे जो समान रूप से मनुष्य और पशु, दोनों के   लक्षण हैं। लेकिन क्या तुमने कभी गाय या घोडे को हमारी तरह जीभ की गुलामी करते हुए देखा है ? तुम्हारे विचार में क्या यह संस्कृति की पहचान है, सच्चे जीवन की पहचान है, कि हम अपने व्यंजनों की संख्या में इतनी वृद्धि करते जाएं कि यह भी पता न रहे कि हम कहां हैं, और नये-नये व्यंजनों की तलाश में तब तक लगे रहें जब तक कि पूरी तरह पागल बनकर अखबारों के पीछे न भागने लगें जिनमें नित नये व्यंजनों के विज्ञापन दिए रहते हैं ?

अस्तेय का व्रत

मेरा मानना है कि हम सब एक तरह से चोर ही हैं। अगर मैं कोई ऐसी चीज लेकर अपने पास रख लेता हूं जिसकी मुझे तत्काल आवश्यकता नहीं है तो मैं किसी अन्य व्यक्ति से वह चीज चुरा रहा हूं। प्रकृति का यह मौलिक नियम है, जिसका कोई अपवाद नहीं है, कि वह हमारी दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जितना जरूरी है, ठीक उतना ही उत्पादन करती है; और यदि प्रत्येक व्यक्ति उसमें से सिर्फ उतना हिस्सा ही ले जितने की उसे जरूरत है और फालतू बिलकुल न ले तो दुनिया में से कंगाली उठ जाएगी और कोई आदमी भूख से नहीं मरेगा। मैं समाजवादी नहीं हूं और मैं जिनके पास संपत्ति है, उनसे उसका हरण करना भी नहीं चाहता, लेकिन मैं यह जरूर कहता हूं कि जो व्यक्ति अंधकार में से आते हुए आलोक के दर्शन करना चाहते हैं, उन्हें इस नियम का पालन करना होगा। मैं किसी से उसकी संपत्ति छीनना नहीं चाहता, क्योंकि यह अहिंसा के नियम का त्याग होगा। अगर किसी के पास मुझसे ज्यादा संपत्ति है तो हो। लेकिन जहां तक मेरे जीवन के नियमन का प्रश्न है, मुझे जिस चीज की जरूरत नहीं है, उसे मैं अपने पास रखने का साहस नहीं करूंगा। भारत में लाखों लोग ऐसे हैं जो सिर्फ एक जून रोटी खाकर रहते हैं और वह भी रूखी, सिर्फ चुटकी भर नमक के साथ। जब तक इन गरीबों को भोजन और वस्त्र उपलब्ध नहीं होते तब तक हमारे पास आज जो संपत्ति है, उसे रखने का हमें कोई अधिकार नहीं है। आपको और हमको, जो ज्यादा समझदार हैं, अपनी आवश्यकताओं का समंजन करना चाहिए, और स्वेच्छापूर्वक अभाव की जिंदगी भी जीनी चाहिए ताकि इन गरीबों की देखभाल हो सके और उन्हें भोजन-वस्त्र मिल सकें।

स्वदेशी का व्रत

स्वदेशी का व्रत अनिवार्य व्रत है। जब हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने पडोसी को छोडकर किसी और के पास जाते हैं तो मानव जाति के एक पवित्र नियम को तोडते हैं। अगर कोई आदमी बंबई से आकर तुम्हें कुछ सामान बेचना चाहता है और यदि तुम्हारे मौास में जन्मे और पले-बढे किसी व्यापारी के पास भी बेचने के लिए वही सामान है तो तुम्हारा बंबई के व्यापारी से सामान खरीदना उचित नहीं है।

स्वदेशी की मेरी धारणा यही है। अपने गांव में तुम्हें मौास से बाल काटने का प्रशिक्षण लेकर आए नाई के बजाए गांव के नाई को ही प्रश्रय देना है। अगर तुम समझते हो कि तुम्हारे गांव का नाई भी मौास के नाई जैसा कुशल हो जाए तो उसे इसका प्रशिक्षण दिला सकते हो। चाहो तो उसे जरूर मौास भेजो और उसे वहां से प्रशिक्षण दिला दो। जब तक तुम यह नहीं करते तब तक उस नाई को छोडना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। यह स्वदेशी की भावना है। तदनुसार अगर हमें लगे कि बहुत-सी चीजें भारत में उपलब्ध नहीं हैं तो हमें उनके बगैर भी काम चलाना चाहिए। हमें बहुत-सी चीजों के बगैर काम चलाना पड सकता है, लेकिन मेरा विश्वास करो कि वैसी मनःस्थिति विकसित कर लेने पर तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे कंधों से एक बडा बोझ उतर गया है। यह अनुभव ठीक वैसा ही होगा जैसा कि 'पिलग्रिम्स प्रोग्रेस' नामक अद्वितीय पुस्तक में पिलग्रिम को हुआ था। एक समय ऐसा आया जब पिलग्रिम के ऊपर से वह भारी बोझा उतर गया जिसे वह अनजाने ही ढो रहा था और तब उसे अनुभव हुआ कि वह जब यात्रा पर रवाना हुआ था तब के मुकाबले अब कितना ज्यादा आजाद था। उसी प्रकार की अनुभूति स्वदेशी की भावना को स्वीकार करते ही तुमको भी होगी।

अभय का व्रत

मैंने भारतगभ्रमण करते हुए पाया कि मेरे देशवासी एक जडताकारी भय से ग्रस्त हैं। हम सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहने का साहस नहीं कर पाते, हम छुपे तौर पर ही अपनी राय जाहिर करते हैं। हम अपने घर की चहारदीवारी में कुछ भी करें, लेकिन उन चीजों का पता जनता को नहीं लगता।

अगर हमने मौनव्रत रखा होता तो मुझे कोई आपत्ति न होती। मेरा कहना है कि हमें केवल एक शक्ति से डरना चाहिए, और वह शक्ति है ईश्वर। जब हम ईश्वर से डरने लगेंगे तो मनुष्य से डरने की जरूरत नहीं रहेगी, वह चाहे जितना उच्च पदस्थ हो; और अगर तुम सत्य का व्रत लेना चाहते हो तो अभय परम आवश्यक है। भारत की नियति को निर्देशित करने की आकांक्षा करने से पहले हमें अभय का अभ्यास डालना होगा।

'अछूतों' के संबंध में व्रत

आज हिंदुत्व के ऊपर एक अमिट लांछन लगा हुआ है। मुझे इस बात पर विश्वास करने से इंकार है कि यह प्रथा अनंत काल से चली आ रही है और हमें विरासत में मिली है। मेरे ख्याल में हमारा समाज जब घोर पतन की अवस्था में होगा तब यह 'छुआछूत' की दुखदायी, घृणित और गुलामी की प्रतीक भावना पैदा हुई होगी। इस कुप्रथा ने हमारे समाज में जडें जमा ली हैं और आज भी हम इसके शिकार हैं। मेरी समझ में, यह एक अभिशाप है; और जब तक यह अभिशाप हमारे साथ लगा है तब तक यह समझना चाहिए कि इस पवित्र भूमि पर जो-जो विपदाएं आ रही हैं, वे सब हमारे इस घोर पाप का ही दंड हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि किसी व्यक्ति को उसके काम की वजह से अछूत क्यों समझा जाना चाहिए; और आप छात्रगण जो आधुनिक शिक्षा पा रहे हैं, यदि इस अपराध के भागीदार बने रहे तो अच्छा यही होता कि आप अशिक्षित ही रह जाते।

मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा

यूरोप में, प्रत्येक सुसंस्कृत व्यक्ति केवल अपनी ही भाषा नहीं सीखता, बल्कि अन्य भाषाएं भी सीखता है।

भारत की भाषा समस्या को हल करने के लिए हम आश्रमवासियों को अधिक-से-अधिक भारतीय भाषाएं सीखने पर बल देना चाहिए। इन भाषाओं को सीखने का कष्ट अंग्रेजी में निपुणता प्राप्त करने की तुलना में कुछ भी नहीं है। हम अपने बचपन के वर्ष़ों को कैसे भूल सकते हैं ? लेकिन जब हम विदेशी भाषा के माध्यम से उच्च शिक्षा ग्रहण करने की शुरुआत करते हैं तो ठीक यही होता है। इससे एक दरार पैदा हो जाती है जो हमें बहुत महंगी पडेगी। आप शिक्षा और छुआछूत के संबंध को ही देखिए - ज्ञान और शिक्षा का प्रसार होने पर भी छुआछूत कायम है। शिक्षा के प्रभाववश हम छुआछूत की भयंकर बुराई को देखते तो हैं, पर हम भय से जकडे हुए हैं, अतः हम उसके निराकरण के लिए कुछ कर नहीं पाते।

खादी का व्रत

आप पूछ सकते हैं, 'हम अपने हाथों का इस्तेमाल क्यों करें ?' आप कह सकते हैं, 'हाथ का काम वे करें तो अशिक्षित हैं। मैं तो साहित्य और राजनीतिक निबंध पढने में अपने समय का उपयोग करूंगा।ञ हमें श्रम की गरिमा को पहचानना चाहिए। अगर कोई नाई या मोची कालिज में पढने लगे तो उसे अपना पेशा नहीं छोड देना चाहिए। मैं इन पेशों को डाक्टरी के पेशे के समकक्ष ही मानता हूं।

जब आप इन सभी नियमों का पालन करने लगेंगे तो, अंत में, आपके सामने आएगा :

राजनीति का धार्मिक उपयोग

धर्म से अलग, राजनीति का कोई अर्थ ही नहीं है। यदि छात्रजगत इस देश के राजनीतिक मंच पर एकत्र हो जाए तो यह राष्ट्रीय संवृद्धि का कोई स्वस्थ चि नहीं है; लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अपने विद्यार्थी-जीवन में तुम्हें राजनीति का अध्ययन नहीं करना चाहिए। राजनीति हमारे जीवन का एक हिस्सा है, हमें अपनी राष्ट्रीय संस्थाओं को समझना चाहिए। हमें अपने बचपन से ही यह समझ पैदा करनी चाहिए। इसीलिए हमारे आश्रम में प्रत्येक बच्चे को देश की राजनीतिक संस्थाओं को समझने की शिक्षा दी जाती है और बताया जाता है कि देश में कौन-कौन सी नयी भावनाएं, नयी-नयी आकांक्षाएं और नया जीवन पनप रहा है। लेकिन हम धार्मिक आस्था के स्थिर और अमिट प्रकाश का प्रसार भी चाहते हैं - उस आस्था का नहीं जो केवल बुद्धिजीवियों को आकर्षित करती है, बल्कि वह आस्था का नहीं जो केवल बुद्धिजीवियों को आकर्षित करती है, बल्कि वह आस्था जो हृदय पर स्थायी रूप से अंकित हो जाती है। सबसे पहले हम अपनी धार्मिक चेतना को प्राप्त करना चाहते हैं, इसके साथ ही जीवन का संपूर्ण क्षेत्र हमारे सामने खुल जाता है; यह पवित्र विशेषाधिकार सभी का है ताकि आज के किशोर जब पुरुषत्व को प्राप्त हों तो वे जीवन-संघर्ष के लिए पूरी तरह तैयार हों। आज स्थिति यह है कि अधिकांश राजनीतिक गतिविधियां छात्रों तक सीमित हैं और जब उनका छात्रजीवन समाप्त हो जाता है तो छोटे-मोटे रोजगारों में लगकर वे गुमनामी के शिकार हो जाते हैं। न उन्हें ईश्वर के बारे में कोई ज्ञान होता है, न वे ताजी हवा या चमकते प्रकाश अथवा सच्ची स्फूर्तिदायक स्वतंत्रता के बारे में जानते हैं जो उन नियमों का पालन करने से आती है जिन्हें मैंने आपके समक्ष प्रस्तुत किया है...

सभागार, मद्रास में भाषण, फरवरी 16, 1916; स्पीरा, पृ. 377-90

(स्त्रोत : महात्मा गांधी के विचार)


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