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खण्ड 5 :
ईश्वर-भक्त


63. ‘ताटी उघडा ज्ञानेश्वरा’

सेवाग्राम का निवासकाल । महात्माजी नित्य प्रातः घूमने जाते थे । घूमकर लौटते समय कोई बीमार हो तो उसकी कुटिया में जाकर पूछताछ करते थे । एक बार एक झोपडी़ के पास वे आये । उनके कानों में यह सुन्दर अभंग सुनाई पडा़

सन्त जेणें व्हावे । जग-बोलणें सौसावे

तरीच अगीं थोरपणे । जाया नाहीं अभिमान

थोरपण जैथें वसे । तेथें भूतदया असे

रागैं भरावे कवणासीं । आपण ब्रह्म सर्व देशीं

ऐशी समदृष्टि करा । ताटी उघडा ज्ञानेश्वरा ।।

विश्व झालिया वन्हि । संतमुखें व्हावे पाणी

तुम्ही तरोन विश्व तारा । ताटी उघडा ज्ञानेश्वरा ।।

मजवरी दया करा। ताटी उघडा ज्ञानेश्वरा ।।‘

जिसे सन्त बनना हो, उसे संसार की बातें सहनी होंगी । महानता तभी मिलेगी, जब मन में अभिमान नहीं होगा । किस पर क्रोध करें, जब स्वयं ब्रह्म ही सर्वत्र है । हे ज्ञानेश्वर, ऐसी समदृष्टि रखो और परदा खोलो । सारा विश्व अग्नि बन जाय, तो सन्त की वाणी को जल बनना होगा । हे ज्ञानेश्वर, तुम स्वयं तर जाओ, औरों को तारो, परदा खोलो । मुझ पर कृपा करो, ज्ञानेश्वर, परदा खोलो ।

श्री परचुरे शास्त्री वह अभंग अपनी सुस्बर मीठी आवाज में गा रहे थे । किवाड़ खोलने के बारे में सन्त मुक्ताबाई का वह प्रसिद्ध अभंग हैं । उसके जो चरण याद आते थे, वही शास्त्रीजी गा रहे थे । परचुरे शास्त्रीजी को वह अभंग अत्यन्त प्रिय था ।

थोडी़ देर में समाधि उतरने के बाद गांधीजी झोपडी़ के अन्दर गये । बोलेः

“शास्त्रीजी, यह अभंग मुझे लिख दीजिये । मैं उसे कण्ठस्थ करूगाँ । कितना प्रेमभरा और कितना उदात्त है यह अभंग किसका है ?”

“मुक्ताबाई का । ज्ञानेश्वर महाराज की वह छोटी बहन थी । एक बार आलन्दी में ज्ञानेश्वर सड़क पर से जा रहे थे । कुछ निंदक लोग उनकी ओर उँगली उठाकर चिल्ला उठेः ‘अरे देखो वह संन्यासी का बच्चा सामने दीख पडा़, हाय-हाय, अपशकुन हो गया ।’ ज्ञानेश्वर का मन बैठ गया । कमरे में जाकर किवाड़ बन्द करके बैठ गये । मुक्ताबाई पानी लेने गयी थीं । आयीं तो किवाड़ बन्द देखा । तब उन्होनें यह अभंग सुनाया । वह ‘ताटी के अभंग’ के नाम से प्रसिद्ध है। प्रत्येक अभंग के अन्त में ‘ताटी उघडा ज्ञानेश्वरा’ आता है ।”

परचुरे शास्त्रीजी को पूरा अभंग याद नहीं आ रहा था । लेकिन उन्होंने पूना के प्रा. दत्तोपंत पोतदार को पत्र लिखकर सारे अभंग मँगवा लिये और गांधीजी को लिखकर दे दिये ।