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खण्ड 5 :
ईश्वर-भक्त


59. कृपा किसको ?

गांधीजी हमेशा रेल के तीसरे दर्जे में ही प्रवास करते थे । गरीबों के जीवन से एकरूप हो गये थे । उन्हें इस दर्जे में प्रवास करने से अनेक प्रकार के अनुभव भी मिलते थे । गांधीजी की नम्रता, निरहंकारता ऐसे समय सुन्दर ढंग से प्रकट होती थी ।

एक बार गांधीजी तीसरे दर्दे में इसी तरह सफर कर रहे थे । एक स्टेशन पर खूब भीड़ थी । गांधीजी इस गाडी़ से जा रहे है, यह खबर लोगों को नहीं थी । नहीं तो दर्शन के लिए हजारों लोग आ गये होते । ‘महात्मा गांधी की जय’ के जयघोष से सारा इलाका गूँज उठा होता, परन्तु आज उस प्रकार जयघोष नहीं हो रहा था । गांडी़ उस स्टेशन पर बहुत कम समय के लिए रुकनेवाली थी । वह देखो, एक भाई आ रहा है । कितना सामान है उसका । कोई सेठ तो नहीं । ? खुद चढ़ने से पहले वह अपना सामान गाडी़ में चढा़ रहा था । गाडी़ खुल गयी । कुली अपनी मजदूरी के लिए जल्दी मचा रहा था । सेठजी हड़बडी़ में चढ़ने लगे । गिरने ही वाले थे । कुली ने सेठजी के शरीर को जैसे-तैसे अन्दर धकेल दिया। सेठजी गिरते-गिरते बचे । वे अंदर अपने सामान पर बैठे । जान में जान आयी, तब सारा सामान ठीक से लगा लिया ।

थोडी़ देर में बडा़ स्टेशन आया । वहाँ हजारों लोग बापूजी के दर्शनार्थ जमा हुए थे । जयजयकार से दसों दिशाएँ गूँज रही थीं। महात्माजी ने सबको दर्शन दिये । ‘हरिजनों के वास्ते’-कहकर हाथ आगे किया । लोगों ने अपने पास जो कुछ था, वही दिया । फिर गाडी़ खुली । महादेवभाई और अन्य लोग पैसे गिनने लगे ।

सेठजी के ध्यान में आया कि वे उसी डिब्बे में चढ़ आये हैं, जिसमें गांधीजी हैं, इसी कारण गिरते-गिरते बचे । महात्माजी की कृपा ! उस सेठजी का हृदय कृतज्ञता से भर आया । वह घीरे-से उठे। डरते-डरते गांधीजी के पास गये । थर थर काँपते हुए कुछ देर खडे़ रहे और गांधीजी के पैरों पर गिर पडे़ ।

“यह क्या ? क्या हुआ ? क्या चाहते हो ?”-गांधीजी ने पूछा ।

“महाराज ! आप इस डिब्बे में थे, मुझे मालूम ही नहीं था । मैं पिछले स्टेशन पर चढ़ते समय गिरने वाला था । लेकिन बच गया । यह आपकी कृपा है ।”

महात्माजी ने गम्भीरता से कहाः “मैं इस डिब्बे में था, इसलिए आप गिरनेवाले थे । बच गये, ईश्वर की कृपा से ।”