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खण्ड 4 :
प्रेम-सिन्धु

46. दो नजरबन्द

कर उन दिनों महात्माजी पूना के आगाखाँ-महल में बन्दी थे । वे सन् 1942 की आजादी की लडा़ई के उज्ज्वल दिन थे । ‘चले जाओ’ का जंग छिड़ गया था और अचानक महात्माजी का महादेव भगवान् के पास चला गया । बापूजी का दाहिना हाथ गया । उनकी व्यथा वे ही जानें ! जहाँ दाह-संस्कार हुआ, वहाँ गांधीजी ने छोटी-सी समाधि बनवायी । वृक्ष लगाया । रोज वे उस समाधि के पास जाते थे और पुष्पांजलि चढा़ते थे । गांधीजी भाव-सिन्धु थे ।

एक दिन राष्ट्र का पिता महादेवभाई की समाधि पर रोज की तरह जाकर लौट रहा था । उस छोटे-से सँकरे रास्ते से वे आ रहे थे । इतने में बाड़ के उस पार उन्हें हिरन का एक निष्पाप शिशु दिखाई दिया । वह शिशु बापू की ओर करुण-दृष्टि से देख रहा था । बापू बन्दी थे । बापू देखते रहे । भरे हुए अन्तःकरण से वे चले गये। सन्तों को सबके प्रति प्रेम होता है । सन्त तुकाराम कहते थेः “वृक्षवल्ली और वनचर हमारे सगे-सम्बन्धी हैं ।” भारतीय संस्कृति का नाम लेते ही आश्रम, हिरण आँखों के सामने आ जाते हैं । उस मृगशावक को देखकर बापू को कहीं महादेव की आत्मा तो याद नहीं आयी ?

अगले दिन जेल के अधिकारी आये । बापू ने कहाः “उधर हिरन है, वह भी नजरबन्द है और मैं भी नजरबंद हूँ । हम दोनों को मिलने की अनुमति रहे ।”

शंकाशील अधिकारी ने उस हिरन को ही वहाँ से हटा दिया ! बापू को वह हिरन फिर कभी नहीं दिखाई दिया ।