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खण्ड 4 :
प्रेम-सिन्धु

42. गांधीजी की करुणा

सन् 1930 की बात है । सत्याग्रह-संग्राम, नमक-सत्याग्रह अभी प्रारम्भ नहीं हुआ था । परन्तु महात्मा गांधी 80 सत्याग्रहियों की टुकडी़ लेकर साबरमती-आश्रम से निकल पडे़ थे ! उनकी आज्ञा थी कि वे जब तक सत्याग्रह न करें, तब कोई न करे । महात्माजी की दाण्डी-यात्रा प्रारम्भ हुई । देशभर में तेज की लौ फैल रही थी । महात्माजी की वाणी देशभर में पहुँच रही थी, सात समुद्र पार जा रही थी । देशभर में देशभक्ति की लहरें उमड़ रहीं थीं ।

उस दिन महात्माजी के पडा़व पर शाम को विराट् सभा हुई । महापुरुष की वाणी सुनकर लोग पावन हुए, उत्स्फूर्त हुए । सभा समाप्त हुई । महात्माजी ने प्रार्थना की । सत्याग्रहियों का भोजन हुआ । महात्माजी का बिस्तर लगा दिया गया । छत पर आकाश के तले महापुरुष सोया था । महात्माजी की निद्रा तो योगी के जैसी गाढ़ निद्रा थी ।

रात के दो-तीन बजे का समय था । बाहर स्वच्छ चाँदनी छिटकी थी-महात्माजी की तपस्या के समान शान्त और सुन्दर । महात्माजी उठे । उन्हें बहुत-से पत्र लिखने थे । लालटेन पास में ही थी । बत्ती बडी़ करके वे लिखने बैठे ।

परन्तु लालटेन का तेल खत्म हो गया । रोशनी धीमी होने लगी । बाती ही जलने लगी । आखिर लालटेन बुझ गयी । अब क्या करें ? स्वयंसेवक, सत्याग्रही सब थके-माँदे सोये हुए थे । महात्माजी ने उन्हें जगाया नहीः वे वहीं चन्द्रमा के मन्द-मधुर प्रकाश में लिखने लगे ।

किसीकी नींद खुली । महात्माजी कुछ लिख रहे हैं, यह देखकर वे उनके पास आये ।

“बापू, चन्द्र के प्रकाश में लिखने के लिए दिखाई देता है ? आँखों को तकलीफ नहीं होती ? आपने किसीको जगा क्यों नहीं लिया ? और क्या इन लोगों को लालटेन में पूरा तेल भरके नहीं रखना था ?” वे भाई बडे़ गुस्से में बोलने लगे ।

गांधीजी शान्ति से बोलेः “मुझे चाँदनी में दिख रहा है । हाँ, पढ़ना जरूर नहीं हो पाता । सोने दो सबको । सब थके हैं । आप भी शान्ति से कुछ देर सो लीजिये । अभी काफी रात है ।”

स्वयंसेवकों को न जगाकर, चाँदनी में लिखनेवाली राष्ट्रपिता की वह स्नेहमयी मूर्ति आँखों के सामने आते ही मेरा जी भर आता है ।