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खण्ड 2 :
राष्ट्रपिता

27. गांधीजी और लोकमान्य तिलक

लोकमान्य तिलक के प्रति महात्माजी के मन में बडा़ आदर था । परन्तु उन्हें भी नम्रतापूर्वक, लेकिन निर्भय होकर सुनाने से महात्माजी कभी हिचकिचाते नहीं थे ।

सन् 1917 की बात है। कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन था । डा. एनी बेसेण्ट उस वर्ष कांग्रेस की अध्यक्षा थीं । अधिवेशन के निमित्त से दूसरी भी सार्वजनिक सभाएँ होती थीं, नेताओं के भाषण होते थे ।

वह देखो, एक विराट् सभा हो रही है । हजारों लोग इकट्ठा हुए हैं । वहाँ लोकमान्य तिलक, गांधीजी आदि महापुरुष बैठे हैं । लोकमान्य का भाषण हुआ । वे अंग्रेजी में बोले । उनके बाद गांधीजी उठकर बोलेः “लोकमान्य का सुन्दर, स्फूर्ति-दायक भाषण हिन्दी में हुआ होता तो अधिकांश लोग समझ पाते । यह अंग्रेजी भाषण बहुत ही कम लोग समझ सके होंगे । भाषण जिनकी समझ में न आया हो, वे हाथ ऊपर उठायें ।’’

हजारों हाथ उठे । गांधीजी ने लोकमान्य से कहाः “भाषण जनता की समझ में आना चाहिए न ?’’

लोकमान्य फिर से भाषण के लिए खडे़ हुए । जनता उनकी भी भगवान् थी । लोकमान्य को हिन्दी में बोलने का अभ्यास नहीं था । फिर भी टूटी-फूटी हिन्दी में वे बोले । लोगों के चेहरे खिल उठे । महात्माजी को अपार आनन्द हुआ हुआ । सही अर्थ में राष्ट्रीयता और राष्ट्रैक्य का उदय हो रहा था ।