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खण्ड 2 :
राष्ट्रपिता

26. स्त्रीत्व-रक्षा के प्रहारी

दूसरा विश्व-युद्ध शुरू हो गया था । यूरोप के राष्ट्र एक के बाद एक गिरते जा रहे थे । इंग्लैण्ड संकट में था । वह देखो, उपनिवेशों से फौजें आने लगीं । इंग्लैण्ड में उतरने लगीं । एक आस्ट्रेलियन सेना बंबई में उतरी । उसे विलायत जाना है ।

लडा़ई के मैदान में मरने के लिए जानेवाले सैनिकों को हर तरह की छूट रहती है । फिर गुलाम भारत में गोरे सिपाहीयों के मिजाज चढे़ हुए हों, तो क्या आश्चर्य ! उन आस्ट्रेलियन गोरे टामियों ने बम्बई में उपद्रव कर दिया । किसीकी टमटम पर चढ़ जाते, किसीकी मोटर थाम लेते । परन्तु सबसे बुरी बात तो महिलाओं के साथ उनके व्यवहार की थी । गिरगाँव, ग्रैंट रोड वगैरह भागों में भारतीय नारियों का घूमना-फिरना मुहाल होने लगा । टामी छेड़छाड़ करते थे । सुना है, आँचल भी पकड़ कर खींचते थे । परन्तु बम्बई के अखबार चुप थे । महाराष्ट्र के हिन्दुत्व के अभिमानी समाचारपत्र भी ठण्डे पडे़ थे ।

आखिर राष्ट्रपिता के कान तक बात पहुँची । वह शांत सिंह प्रक्षुब्ध हो उठा । हरिजन में बापूजी ने लिखाः “सैनिक अधिकारी कहाँ हैं ? गवर्नर क्या कर रहे हैं ? बम्बई के मेयर किधर गये ? हिंसा-अहिंसा का यह सवाल नहीं है । स्त्रियों की आबरू का रक्षण होना ही चाहिए ।’’ ज्यों ही महात्माजी ने अपनी निर्भय आवाज बुलन्द की, त्यों ही दूसरे अखबारों की लेखनी खुली ।

महात्माजी यानी मूर्तिमन्द निर्भयता ।