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खण्ड 2 : राष्ट्रपिता

17. बिना सुँघनी के दाँत उखड़वाया

तब गांधीजी अफ्रीका से लन्दन गये थे । वे दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की बात इंग्लैण्ड के लोगों के सामने रखने के लिए गये थे । वहाँ उन्होंने एक ‘दक्षिणी अफ्रीका-समिति’ की स्थापना की । बडे़-बडे़ लोगों से मिले। अखबारों में लेख लिखे । सभाएँ की । दिनभर ही नहीं, बल्कि मध्यरात्रि तक काम चलता था ।

वे एक होटल में ठहरे थे । एक दिन ‘दक्षिणी अफ्रीका-समिति’ की बैठक हो रही थी । इतने में उनके एक मित्र डा. जोशिया ओल्डफील्ड उनसे मिलने आये । गांधीजी बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड रहे थे, तब जोशिया और वे एक ही घर में रहते थे । उनमें बडा़ स्नेह था ।

पुराना मित्र मिलने आया, इसलिए गांधीजी बाहर आये । थोडी़ बातचीत के बाद उन्होंने डाक्टर से पूछाः

“मेरा एक दाँत बहुत दुखता है, उसे आप निकाल देंगे ?”

डाक्टर ओल्डफील्ड ने दाँत देखा । दाँत निकालना कठिन था । बोलेः ‘किसी दंत-चिकित्सक के पास जाना होगा ।’’

गांधीजी ने कहाः “मुझे समय नहीं है । यहीं के यहीं चट से निकाल दें तो मैं बडा़ आभारी होऊँगा । देखिये । क्योंकि मेरा सारा ध्यान इस दाँत की ओर जाता है और एकाग्र मन से सोच नहीं सकता हूँ, न काम ही कर पाता हूँ ।’’

डा. ओल्डफील्ड बाहर गये । दाँत निकालने का औजार कहीं से माँगकर लाये । मसूडे़ को सुन्न किये बगैर दाँत उखाड़ना बडा़ दुखदायी होता है । गांधीजी ने समिति के लोगों से कुछ देर रुकने के लिए कहा और अपने शयनकक्ष में आये । डाक्टर दाँत निकालने लगे । निकालने में बडी़ तकलीफ हुई । परन्तु गांधीजी शांत थे । सारी वेदना चुपचाप सहन की । उफ तक नहीं किया । दाँत निकल गया । कुछ मिनट शांति से बैठे रहे । फिर धीमी आवाज में डाक्टर को धन्यवाद दिया और अपने काम पर लौट आये ।