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खण्ड 1 :
कला-प्रेमी और विनोद

5. गांधीजी का अनोखा हास्य-विनोद

महात्माजी का हास्य अपूर्व चीज थी । पं. जवाहरलालजी अपनी आत्मकथा ‘मेरी कहानी’ में लिखते हैः जिसने महात्माजी की हास्य मुद्रा नहीं देखी, उसने अत्यन्त मूल्यवान् वस्तु खोयी, यही मैं कहूँगा ।’’ गांधीजी कहते थेः ‘‘मुझमें यदि हास्य-विनोद न होता, तो मैं कभी का टूट गया होता ।’’ काकासाहब कालेलकर महात्माजी के हास्य को मुक्त पुरुष का हास्य कहते हैं ।

सन् 1934 के अंत में कांग्रेस का अधिवेशन बंबई में हुआ था । अधिवेशन समाप्त हुआ । नेता अपने-अपने घर लौटने लगे । उस समय राजेन्द्रबाबू अध्यक्ष थे । उनको आज लौटना था । सुबह आठ बजे का समय था । वहाँ के सभा-भवन में महात्माजी, राजेन्द्रबाबू, सरदार वगैरह बडे़-बडे़ लोग खडे़ थे । मैं दूर से ही वह प्रसंग देख रहा था । राजेन्द्रबाबू ने महात्माजी का चरण-स्पर्श किया । वातावरण गंभीर हो गया । आँखें छलछला आयीं । वातावरण का भार कम करने का जादू महात्माजी जानते थे । पास में ही एक स्वयंसेवक खडा़ था । महात्माजी ने उसके सिर से टोपी लेकर सरदार के सिर पर चढा़ दो ! सब जोर से हँस पडे़ । महात्माजी का मुक्त हास्य फूट पडा़ । गंभीर वातावरण पुनः उल्लासमय हो गया ।