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खण्ड 1 :
कला-प्रेमी और विनोद

3. विनोद में भी शिक्षा

यह तब की बात है, जब गांधीजी सेवाग्राम आश्रम में थे । आश्रम का भोजन अत्यन्त सादा होता था । तरह-तरह का जायकेदार भोजन बनाना मना था । सादा ही आहार हो, परन्तु भूख लगने पर खाया तो स्वास्थ्य उत्तम रहता है, यह वे जानते थे । फिर आश्रम में तो अस्वाद-व्रत का पालन करना होता था !

अस्वाद का अर्थ है, जीभ के चटोरेपन को छोड़कर अन्न का सेवन । भोजन सादा होता था, परन्तु सबको पेटभर खाने की छूट थी । गांधीजी को जिस दिन फुरसत रहती, उस दिन वे स्वयं सबको परोसते थे । कोई कम खाता, तो उसकी तबीयत के बारे में वे पूछताछ करने लगते । सबमें आनन्द, समाधान और सन्तोष फैलाने का प्रसास करते थे ।

एक बार एक अमरीकी विद्वान् पत्रकार लुई फिशर सेवा-ग्राम आश्रम में उनसे मिलने आये थे । सप्ताहभर ठहरे । एक दिन दोपहर के भोजन में वे गांधीजी के साथ बैठे । गांधीजी आश्रम में अस्वाद-व्रत का आग्रह रखते थे । परन्तु बाहरी मेहमान पर जबरदस्ती नहीं करते थे । यथाशक्ति उनकी रुचि के अनुकूल खिलाते थे । उस दिन उन्होंने फिशर को भोजन के साथ आम खाने को दिया । उन्हें वह बहुत पसंद आया ।

खाते-खाते फिशर ने गांधीजी से विनोद में पूछाः “गांधाजी, आप इन लोगों को सादा भोजन खिलाते हैं । बेचारों को अपना स्वाद मारने के लिए क्यों कहते हैं ? आप तो अहिंसा के हिमायती, फिर ‘मारना’ सिखाते हैं, यह कैसे ?”

उनका मजाक गांधाजी ताड़ गये । लेकिन वे सवाये विनोद थे । जवाब दियाः हाँ, फिशर साहब, यदि संसार स्वाद मारने तक ही हिंसा का उपयोग सीमित कर दे तो मैं सारे संसार को वैसा करने की छूट दे दूँगा ।’’

इस पर सारे लोग हँस पडे़ ।

गांधीजी बात-बात में इस प्रकार का विनोद करते थे । इससे गंभीर चर्चा के बीच भी मुक्त वातावरण का अनुभव आता था ।

गांधीजीने एक बार कहा थाः “मेरे जीवन में विनोद न होता तो मेरा जीवन कब का नीरस बन जाता ।’’