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खण्ड 1 :
कला-प्रेमी और विनोद

1. वह अदभुत प्रपात

सन् 1924 में कांग्रेस का अधिवेशन बेलगाँव में था । श्री गंगाधरराव देशपाण्डेय और दूसरे कार्यकर्ताओं ने कितनी व्यवस्था की थी, कैसा समारोह रचाया था ! सबको आराम मिला था, सब खुश थे। महात्माजी काम में डूबे हुए थे । वे ही उस कांग्रेस के अध्यक्ष थे । कांग्रेस की सभा समाप्त हुई। सब लौटने लगे । कुछ लोग आसपास के प्राकृतिक सौन्दर्य के स्थान देखने गये । एक कार्यकर्ता महाशय गांधीजी के पास आये और बोलेः

‘‘गांधीजी, शरावती का प्रपात देखने चलेंगे ? भारत में ही नहिं, सारे संसार में सबसे ऊँचा प्रपात है यह । 800 फुट की ऊँचाई से गिरता है । दृश्य बडा़ भव्य है। चलेंगे ? महादेवभाई और काकासाहब की भी चलने की इच्छा है । आप चलें तो वे भी चलेंगे । ना नहीं कहियेगा ।’’

‘‘मैं भला कैसे चलूँ ? मैं क्या अब दृश्य देखते घूमूँ ? काम कितना पडा़ है ? महादेव भी जा नहीं सकेगा । काका को ले जाइये ।’’

‘‘गांधीजी, इतनी ऊँचाई से गिरनेवाला वह प्रपात ! सचमुच देखने लायक है । कैसे तुषार उड़ते हैं । कैसा सुन्दर इन्द्रधनुष दिखाई देता है ! कितनी ऊँचाई से पानी गिरता है ! ऐसा लगता है, मानो हम धीर-गंभीर मूर्तिमान् अनन्त निसर्ग की सन्निधि में हैं । क्या आपने कोई प्रपात देखा है ऊँचे से गिरनेवाला ?’’ ‘‘हाँ, कई बार देखा है ।’’

“शरावती जितना ऊँचा ?”

“उससे भी ऊँचा ।’’

“शरावती के प्रपात से बडा़ और ऊँचा प्रपात तो संसारभर में नहीं है । हमने तो भूगोल में पढा़ नहीं ।’’

‘‘भूगोल में नहीं होगा । परन्तु मैं अपनी आँखों से कई बार देखता हूँ । और आपने भी वह देखा है । कितनी ऊँचाई से पानी गिरता है !”

“वह भला कौन-सी नदी हैं ? हमने तो देखा नहीं ।’’

“वर्षा का पानी ! पर्जन्यधाराएँ कितनी ऊँचाई से गिरती हैं ! वह पानी शरावती के पानी की अपेक्षा अधिक ऊँचाई से नहीं गिरता ? मैंने सच कहा कि नहीं ?”

सब हँस पडे ? महात्माजी भी हँसे। काकासाहब और अन्य लोग प्रपात देखने गये । महात्माजी ने उन्हें जाने को कहा, लेकिन स्वयं काम में तल्लीन रहे ।

कई दिनों बाद महादेवभाई किसी काम से मैसूर गये थे, तब वह प्रपात देख आने की व्यवस्था महात्माजी ने उनके लिए कर दी थी ।