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खण्ड 5 :
ज्योति-पुरूष

53. श्रद्धा का परिणाम

ईश्वर पर श्रद्धा एक जीवित तथ्य है । सन्त तुकाराम ने कहाः ‘‘प्राण भले हो जायँ, निष्ठा नहीं डिगनी चाहिए ।’’

‘तुका म्हणे व्हावी प्राणांसवे ताटी ।

नाहीं तरी गोष्टी बोलूं नये। ।’

ईश्वर के बारे में, श्रद्धा के बारे में व्यर्थ क्यों बोलते हो ? अगर यहाँ तक तैयारी है कि प्राण छूट जायँ तो भी चिन्ता नहीं, तब ऐसी बातें बोलो। तुकाराम के ये शब्द सच्चे हैं ।

ईश्वर पर गांधीजी की निष्ठा ऐसी ही थी । वही तारनेवाला है, वही मारनेवाला है। साबरमती का आश्रम हाल ही में शुरू हुआ था। उन्होंने कहा कि अगर कोई हरिजन आ सके तो उसे भी आश्रम में लेंगे । एक हरिजन-परिवार आया । महात्माजी ने उसे लिया। अहमदाबाद के सनातनी लोग क्षुब्ध हुए । व्यापारी लोग धर्म के मामले में बडे़ कटृर होते हैं । अब आश्रम की सहायता कौन करेगा ?

मगनलालभाई गांधीजी के भतीजे थे । वे आश्रम की व्यवस्था देखते थे । दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी की साधना में समरस हुए थे । गांधीजी उन्हें अपना दायाँ हाथ मानते थे । गांधीजी को चरखा चाहिए था, तो मगनलालभाई ने गुजरातभर छान मारा । सूत कातनेवाली एक बहन दिखी तो वे खुशी से पागल हो गये। चरखा मिल गया, ऐसे थे मगनलालभाई । उन्होंने एक दिन शाम की प्रार्थना के बाद बापूजी से कहाः ‘‘बापू, कल आश्रम में खाने को कुछ नहीं है । पैसे तो बचे नहीं । क्या किया जाय ?’’

बापू ने शान्ति से कहाः ‘‘चिन्ता न करो। ईश्वर को चिन्ता है । उसने कहा, ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ ।’’

उसी दिन रात को कोई व्यापारी आया । उसने आश्रम देखा और दस हजार रूपये देकर चला गया ।

एक बार किसीने गांधीजी से पूछाः ‘‘आप अपना बीमा क्यों नहीं करवाते ?’’ उन्होंने कहाः इसलिए कि ईश्वर पर श्रद्धा है ।’’