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खण्ड 5 :
ज्योति-पुरूष

48. शोषण का पाप

सन् 1931 में कराची में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ । सन् 1930 का ‘नमक सत्याग्रह’ समाप्त हो गया था । सरकार के साथ संघर्ष में हिन्दुस्तान की जीत हुई थी । संसार में हिन्दुस्तान की प्रतिष्ठा बढी़ थी । वाइसराय ने गांधीजी से समझौता किया था और महात्माजी गोलमेज परिषद् के लिए लन्दन जानेवाले थे । कराची-कांग्रेस ने उन्हें अपना एक मात्र प्रतिनिधि चुना था । गांधीजी विलायत के लिए रवाना हुए । वही कपडे़, वही सादगी ! साथी लोगों ने खूब कपड़े लिये थे । लेकिन गांधीजी ने वे सब कपडे़ अदन से लौटा दिये। बोलेः ‘‘मैं दरिद्रनारायण का प्रतिनिधि हूँ ।’’ पंचा पहना हुआ यह योगिराज, महान् नेता, ईसा का अवतार लन्दन पहुँचा । वहाँ गांधीजी मजदूरों की बस्ती में ठहरे। उन्हें न तो जाडे़ ने दुःख दिया, न बर्फ ने परेशान किया । वहाँ वे बच्चों के बडे़ प्यारे हो गये थे । उन्हीं के साथ घूमते-हँसते, खेलते रहे ।

गोलमेज परिषद् का काम चालू था । चर्चा और व्याख्यान रोज होते थे । लेकिन जिन्ना साहब कुछ भी चनने नहीं देते थे । गांधीजी को गोलमेज परिषद् के अलावा और भी कई जगह जाना पड़ता था । भेट, मुलाकात, प्रश्नोत्तर पत्रकार-परिषद् जैसे कुछ-न-कुछ काम लगे ही रहते थे ।

ऐसी ही एक सभा थी । महात्माजी बोले । उन्होंने वर्णन किया कि ब्रिटिश शासन में हिन्दुस्तान का किस प्रकार सर्वतोमुखी पतन हुआ है । भारत की भयंकर गरीबी का उन्होंने करूण गम्भीर चित्र खडा़ किया । सभा सत्बध थी । बीच ही में एक व्यक्ति ने उठकर प्रश्न कियाः

‘‘गांधीजी, यह ठीक है कि ब्रिटिश पूँजीवादी लोग सत्ता के आधार पर हिन्दुस्तानी जनता का शोषण कर रहे हैं, लेकिन क्या आपके देश के ही मिल-मालिक, जमींदार, मालिक-वर्ग जनता का खून नहीं चूस रहे हैं ? आपके पूँजीपति लोग क्या पापी नहीं हैं ?’’

महात्माजी बोलेः

‘‘देशी पूँजी भी पापी है, लेकिन उनके पाप का मूल आप लोगों में है । यदि मैं हिंसावादी होता और गरीबों को चूसनेवाले अपने देश के पूँजीपतियों को दो गोली मारता, तो ब्रिटिशों को चार गोली मारता । भारत के अन्दर आप लोगों का पाप बहुत ज्यादा है । सौ-डेढ़ सौ वर्षों की लूट ! पहाड़ के बराबर पाप ! अब बताइये कि भारतीय पूँजीवादी पाप का प्रारम्भ कहाँ से हुआ ?’’

ऐसा तेजस्वी उत्तर गांधीजी ने दिया। गांधीजी निर्भय थे, निःस्पृह थे । जिसके पास सत्य का आधार होता है, वही इस तरह की बात कह सकता है ।