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खण्ड 4 :
सत्याग्रही

47. नम्रता ने ही चकमा दिया

यह कहानी सन् 1924 की है, जबकि गांधीजी आगाखाँ-महल में थे ।

बापूजी जेल में भी अपना समय व्यर्थ नहीं गँवाते थे । वाचन, लेखन, प्रार्थना, कताई, सब काम बराबर चलते थे । बीच में ही कभी कोई नयी भाषा सीखते थे, किसी नये ग्रंन्थ का परिचय कर लेते थे। इस तरह चलता था । जवाहरलालजी, मौलाना आजाद, राजेन्द्रबाबू आदि सारे नेता भी जेलवास का इसी तरह लाभ उठा लेते थे । जवाहरलालजी ने तो अपने सारे बडे़-बडे़ ग्रन्थ जेल में ही लिखे हैं ।

उस दिन गांधीजी का जन्म-दिन था । आन्दोलन के उन दिनों में जेल के बाहर सारे देश में जनता बडी़ गम्भीरता के साथ वह दिन मनाती थी । उधर सरोजिनीदेवी, डाँ सुशील नैयर आदि ने एक नया शिगूफा खिलाया । वे बोलीः ‘‘बापू, आज सारे काम बन्द ! आज आपका जन्म दिवस है ।’’

बापू ने कहाः ‘सारा दिन काम बन्द नहीं रखना है। केवल दोपहर के समय कुछ देर बन्द रहे ।’’

तय हो गया । दोपहर को गांधीजी के परिवार के लोगों ने नया ही खेल शुरू किया ।

निश्चय हुआ कि संसार के महान् विचारकों के भाषण और लेख लिये जायँ और बारी-बारी से प्रत्येक व्यक्ति उन विचारकों का नाम पहचाने । दूसरों की बारी समाप्त हुई । गांधीजी की बारी आयी । उन्हें कुछ उद्धरण सुनाये गये और सब बापू से कह उठेः ‘‘बापू, पहचानिये तो, ये किनकी उक्तियाँ हैं ?’’

बापू ने कुछ देर सोचकर कहाः ‘‘पहली थोरी की है, दूसरी रोमांरोलां की और तीसरी इमर्सन की या कार्लाईल की है ।’’

सब चिल्ला उठेः ‘‘गलत, बिलकुल गलत !’’

फिर उनमें से एक ने कहाः ‘‘बापू, ये सारे उद्धरण एक ही व्यक्ति के हैं और उस व्यक्ति का नाम है मोहनदास करमचन्द गांधी !’’

बापू हँस पडे़। सब हँसने लगे अनजाने ही गांधीजी ने अपने को महान् विचारको की श्रेणी में बैठा दिया था ।

यों तो नम्रता आडे़ आ जाती, लेकिन उस दिन नम्रता ने ही गांधीजी को चकमा दे दिया था ।