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खण्ड 4 :
सत्याग्रही

45. सादगी और साबुन

गांधीजी हमेशा कहते थेः ‘‘मैं सबसे अधिक लोकतन्त्र का उपभोक्ता हूँ ।’’ सचमुच वे वैसे ही थे। वे कभी किसी पर कुछ लादते नहीं थे । साबरमती-आश्रम में छोटे बच्चों के साथ के व्यवहारों में भी उनकी यह वृत्ति दीखती थी । उन दिनों काकासाहब का बच्चा ‘बाल’ आश्रम में ही था । बाल और उनके साथियों को साबुन की जरूरत पडी़। कपडे़ मैले थे ।

संचालक ने कहाः ‘‘बापूजी की स्वीकृति लो । फिर साबुन के लिए पैसे मिलेंगे ।’’

वे बाल-वीर बापू के पास गये ।

‘‘बापू, आप मंजूरी दीजिये ।’’

गांधीजी समझाने लगेः ‘‘हमें तो गरीबी से रहना है । किसान का जीवन जीना है । किसान क्या रोज कपडो़ में साबुन लगाता है ? यह अच्छा नहीं दीखेगा ।’’

‘‘क्या किसान को गन्दा रहना है ? स्वराज्य में हम ऐसा करेंगे कि हरएक किसान को साबुन मिले । काम से घर लौटने पर उसे भी साफ कपडे़ पहनने चाहिए । बापू, सफाई का मतलब क्या शान-शौकत है ? सफाई क्या ऐश है ? साबुन तो एक आवश्यक चीज है । आप हमें मंजूरी दीजिये ।’’

‘‘मान लो, मैंने मंजूरी दे दी । लेकिन आश्रम के सब लोगों को यह पसन्द न आया तो ? तुम लोग एक काम करो । अपने अनुकूल बहुमत प्राप्त करो । समर्थन में हस्ताक्षर लाओ, जाओ ।’’

‘वह हमारा काम है’’ कहकर ‘बाल’ कूदने लगा । और उन बाल वीरों ने आश्रमवासियों के खूब सारे हस्ताक्षर प्राप्त किये । सबको ही साबुन चाहिए था । ‘ना’ कौन करता ? यानी क्या गांधीजी से ये लोग डरते थे ? लेकिन बच्चों ने निर्भय वातावरण बनाया। वे हस्ताक्षर लेकर गांधीजी के पास गये ।

‘‘बापूजी, लीजिये ये हस्ताक्षर’’ विजयी वीरों ने कहा ।

‘‘साबुन मंजूर’’ बापू हँसते हुए बोले ।