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खण्ड 4 :
सत्याग्रही

43. नमक हो अलोना हो जाय तो ?

गांधीजी लिये हुए व्रत को कभी तोड़ते नहीं थे । उनके परिवार के लोगों से उन्हें ऐसा ही संस्कार मिला था । गांधीजी ने अनेक प्रकार के व्रत लिये थे । लेकिन सूत-कताई के व्रत के प्रति उनका विशेष प्रेम था। चाहे जितना काम हो, बडे़-बडे़ लोगों की मुलाकातें हों, कांग्रेस की बैठक हो, चर्चा हो, लेकिन वे प्रतिदिन नियत समय पर सूत काते बगैर नहीं रहते थे । यही व्रत आश्रम के अनेक व्यक्ति पालते थे ।

एक बार गांधीजी प्रवास पर थे । प्रवास खूब लम्बा था। साथ में और लोग भी थे । समय मिलते ही गांधीजी ने अपना चरखा खोला। यह क्या ? उसमें पूनी ही नहीं ! पूनी रखना ही वे भूल गये । उन्होंने महादेवभाई का आवाज दी और कहाः ‘‘अरे महादेव, मैं सेवाग्राम से रवाना होते समय पूनी लेना भूल गया । अपने पास से थोडी़ पूनियाँ दोगे ?’’
महादेवभाई से काफी देर तक बोला नहीं गया। गांधीजी ने फिर कहाः ‘‘देगे न, महादेव ?’’

तब महादेवभाई बोलेः ‘‘बापू, मैं रोज कातता हूँ, लेकिन आज चरखा ही लेना भूल गया ।’’

महादेवभाई सिर नीचा किये खडे़ रहे । बापू की आँखों से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं होती थी । फिर गांधीजी ने दूसरे किसीसे पूनी माँगी तो उससे भी वही जवाब मिला ।

गांधीजी गम्भीर हो गये । अन्तर्मुख हुए। कुछ गम्भीर विचार में लीन हो गये । लगे हाथों ‘हरिजन’ के अगले अंक में उन्होंने एक लेख प्रकाशित किया । उसमें उन्होंने लिखा थाः ‘‘नमक ही अपना खारापन छोड़ दे तो उसका यह अलोनापन कौन मिटाये ? वास्तव में जो सूत-कताई का प्रसार करनेवाले हैं, वे ही अपने व्रत की तरफ दुर्लक्ष्य करें, तो उन्हें व्रत-पालन करना कौन सिखाये ?’’

साधारण लोगों में यह हिम्मत नहीं होती कि अपने दोषों को स्वीकार कर लें । लेकिन गांधीजी अपनी भूलों को फौरन् संसार के सामने खोलकर रख देते थे । उनका मानना था कि यह आत्मशुद्धि का एक उपाय है ।

उन्होंने अपने एक लेख में लिखा थाः ‘‘यदि मनुष्य को अपनी भूल स्वीकार करने में शरम आती है, तो वैसी भूल करने में सौगुना शरम होनी चाहिए ।’’