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खण्ड 3 :
विनम्र सेवक   
 

29. बे-घर बापू

सन् 1933-34 की बात है । गांधीजी का अस्पृश्यता-निवारण सम्बन्धी दौरा चल रहा था । उडी़सा का प्रवास अभी-अभी पूरा हुआ था । उस प्रवास में कई दफा पैदल भी घूमना पडा़ था । बापू पैदल जाते थे । पैदल घूमना उन्हें बहुत प्रिय था । उडी़सा में आन्घ्र में आये। यात्रा शुरू हुई । सत्यधर्म की अमर वाणी देशवासियों को सुनाई देने लगी । जगह-जगह खूब भीड़ होती थी । गाँवों से लाखों लोग आते थे । और महात्मा के दर्शन करते थे

यह कौन आया है ? ‘‘महात्माजी से मुझे मिलने दो’’ – कह रहा है । कौन है यह ? क्या काम है इसे ? वह क्या कोई सनातनी है ? क्या शास्त्रार्थ करने आया है ? लेकिन उसके चेहरे पर शास्त्रार्थ की वृत्ति नहीं है । निगाहें कुछ और ही हैं

पूजा गयाः ‘‘आपको क्या काम है ?’’
      ‘‘क्षणमात्र के लिए मुझे उनसे मिलने दीजिये । मैं एक उपहार लाया हूँ । वह महात्माजी के हाथों में मुझे देने दीजिये । ‘ना’ नहीं किजिये ।’ उस व्यक्ति की पलकें भींगने लगीं । गांधीजी के पास उसे ले जाया गया । एक खादी के रूमाल में लपेटकर वह गांधीजी का एक चित्र लाया था । बडा़ सुन्दर चित्र था । वह एक चित्रकार था । महात्मा का चित्र बनाकर उसने अपनी तूलिका को पवित्र किया था

‘‘महात्माजी, यह आपका चित्र मैंने बनाया है । उपहार स्वीकार कीजिये ।’’ चरण-कमलों में प्रणाम करते हुए वह बोला

गांधीजी ने चित्र हाथ में लिया । देखा । वापस चित्रकार के हाथ में देते हुए उन्होंने कहाः ‘‘मैं इसे कहाँ ले जाऊँ ? मेरे पास न कोई घर है, न द्वार। बोझ क्यों बढा़ऊँ ? सामान क्यों बढा़ऊँ ? कहाँ लगाऊँ ? यह चित्र ? कहाँ रखूँ ? अब तो इस देह का बोझ भी बुरा लग रहा है । भाई, इसे अपने ही पास रख लो ।’’

सब गम्भीर हो गये । गांधीजी के उदगार सुनकर मुझे तुकाराम के शब्द याद आते हैः  
                        उद्दोगाची धाव बैसली आसनों
                        पडलें नारायणीं मोटले हें
      अब बस कर यह दौड़-धूप । देह की गठरी अब नारायण के चरणों में पड़ जाय, तो काफी है