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खण्ड 3 :
विनम्र सेवक   
 

26. सेवापरायण बापू

गांधीजी जन्मजात वै थे। सेवा-टहल उन्हें बहुत भाता था। शुरू-शुरू में रोगियों की सेवा करना उनका ‘व्यसन’ बन गया था। आगे चलकर उन्हें अपने आध्यात्मिक विकास के लिए यह आवश्यक लगा।
      सन् 1920 की बात है । दिसम्बर का महीना था । गांधीजी दिल्ली में वाइसराय के साथ बातचीत कर रहे थे । सत्याग्रह जारी था । हजारो सत्याग्रही जेल में थे । बाइसराय के साथ बातचीत के कई दौर चले। लेकिन समझौते के आसार नहीं दिख रहे थे
      ‘यदि’ समझौते की सम्भावना नहीं है, तो मैं यहाँ क्यों रहूँ ? एक-दूसरे का समय व्यर्थ गँवाने से क्या लाभ ? झूठी आशा किस काम की ? बात बनती नहीं है तो खुले तौर पर जनता से कह दें ।’’ – गांधीजी ने वाइसराय से कहा
      वाइसराय ने पूछाः ‘‘यह सच है कि सच्ची स्थिति जनता के सामने रख देना हिम्मत का काम है । आप फिर सेवाग्राम कब जायेंगे ?’’
      बापू ने कहाः ‘‘हो सके तो आज ही शाम को जाऊँगा। निश्चित ही मैं आपके अधीन हूँ । आपको मेरी जरूरत हो तो मैं रह सकता हूँ, जरूरत न हो, तो मुझे सेवाग्राम जाने दिजिये। मेरा दिल वहाँ है । वहाँ कई तो बीमार हैं । उनमें से बहुत सारे मेरे साथी हैं । मेरा सारा सुख उनके पास रहने में है । सेवाग्राम जाने के लिए मैं अधीर हूँ ?’’