| | |



खण्ड 2 : राष्ट्रपिता
 

14. तभी तो दीनबन्धु हो

कांग्रेस के उस युवक कार्यकर्ता को गांधीजी के कठोर वजन उचित लगे । दुःख तो उसे हुआ ही । फिर भी उन कठोर शब्दों के पीछे रहा हुआ तत्त्व उसकी समझ में आ गया । वह वहाँ से उठा और भारी कदमों से चल पडा़ । हृदय धक-धक कर रहा था । पैर भारी लग रहे थे । भविष्य अन्धकारमय दीखता था । वह दरवाजे तक गया ही था, इतने में देहरी से उसके पैर पीछे मुड़ने लगे । वह गांधीजी के पास आया, बैठा और गिड़गिडा़ने लगाः ‘‘बापू, आपकी बात मुझे जँची है । लेकिन मैं गरीब हूँ । जेब में एक पैसा भी नहीं हैं । जैसे-तैसे पैसे जोड़कर यहाँ तक तो आया । अब लौटूँ कैसे ? लौटने के लिए किसी तरह पैतीस रूपये दीजिये । भरसक जल्दी ही यह पैसा लौटा दूँगा ।’’ इतना बोलकर वह गांधीजी के सामने सिर नीचा करके बैठ गया । आँखों से आँसू बह रहे थे । बापू को भी बुरा लगा । लेकिन उन्होंने कहाः ‘‘मुझसे कुछ न मिलेगा । पहले से ही एक हजार रूपयों की जिम्मेदारी लिये बैठे हो । उसमें इतना और बढा़ना नहीं चाहिए । तुम्हें नया जीवन शुरू करना है न ? तो फिर नया जीवन कर्ज से शुरू न करो । नया ही रास्ता अपनाओ । उसीमें तुम्हारा भला है ।’’

वह युवक उठा । यह उसके लिए दूसरा धक्का था । एक हजार रूपयों की व्यवस्था तो करनी ही थी । वह बाहर जाने लगा । लेकिन उसके चेहरे पर नये जीवन में पदार्पण करते समय का एक नया ही तेज दीख रहा था । एक प्रकार के आत्मविश्वास के साथ वह बाहर निकला।

उसके पीछे-पीछे दीनबन्धु एण्ड्रज भी गये। उन्होंने उसे टिकट खरीद दिया। दीनबन्धु आश्रम लौट आये। उन्हें हँसी आ रही थी। बापू हँसते हुए बोलेः ‘‘तुम्हारी चालाकी मुझे मालूम हो गयी। तुम्हारा नाम ‘दीनबन्धु’ यों ही थोडे़ पडा़ है ?’’